बुधवार, 14 दिसंबर 2011

चलो आज फिर से इंसान हो जाएँ



चलो आज फिर से इंसान हो जाएँ
अपने ज़मीर को जिंदा करें
इंसानियत जगाएँ
चलो आज फिर से इंसान हो जाएँ।



सोमवार, 14 नवंबर 2011

कमल कीचड़ में भी खिलते हैं



ये सच है 
कि कमल कीचड़ में भी खिलते हैं
आज शहर की
एक बस्ती में मैंने
कमल के झुण्ड देखे थे,
हां बहुत प्यारे से बच्चे थे वो
बिलकुल कमल के फूल जैसे!

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

पहली किरण



चाहता हूँ कि 
सूर्य की पहली किरण बन
तुम्हारे घर के 
आँगन में आऊं,
और जाड़े की एक ठंडी सुबह 
तुम्हे जी भर के 
अपनी किरणों से नहलाऊं,
और तुम 
सराबोर हो कर 
सुनहरी किरणों के सौन्दर्य से 
फूलों की तरह खिल उठो
और एक सदी तक 
महकती रहो,
और मैं सदी के अंत तक
तुम्हें अपनी किरणों से
नहलाता रहूँ । 



बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

एक नन्ही सी लौ


दीपक की 
एक नन्ही सी लौ 
रौशन कर सकती है 
इस ज़हाँ को,

हर एक कोने से 
ढूंढ कर 
अँधेरे के शैतान को
क़त्ल कर सकती है वो,

आओ हम भी 
उस लौ की रौशनी में नहा लें 
इस दीपावली पर 
एक दीपक ऐसा जलाएं 
जिसे आंधियाँ भी 
बुझा ना सके!







रविवार, 23 अक्तूबर 2011

एक आवाज़ "जगजीत सिंह"




वो आवाज़ 
जो ले जाती थी हमें 
भावनाओं के दरिया मे 
और देती थी साथ 
तन्हाइयों मे,


वो आवाज़ 
जो ले जाती थी 
बचपन मे 
और रिश्तों का अर्थ 
समझाती थी,


वो आवाज़ 
जो बंद कमरे मे 
बत्तियाँ बुझाकर 
सुना करता था मैं,


वो आवाज़ 
जो एक दिल की 
गहराइयों से निकलकर 
मेरे दिल की गहराइयों मे 
उतर जाती थी,


सचमुच 
बहुत सुकून देती थी 
वो आवाज़
जगजीत सिंह की आवाज़,


आज कुछ खामोश है मगर 
वो आवाज़ 
यूँ ही गूँजती रहेगी 
वादियों मे सदियों तक।   

सोमवार, 26 सितंबर 2011

क्षणिकाएँ




(1)
पर्दा करने लगी है 
आजकल शर्म 
बेहयाई 
घूँघट उठा रही है। 


(2)
मैं कोशिश करूंगा 
कि सिर्फ शब्दों के जाल ना बुनू 
शब्दों के परे भी इक जहाँ है 
कभी उधर का भी रूख करूँ। 


(3) 
वो अवरोधों से
बचकर निकल जाते हैं
हमें अवरोधों से बचना नहीं 
उन्हे ध्वस्त करना है।  

(4)
वर्तमान ही भविष्य का 
आधार बनाता है 
अतीत के आँगन मे बिखरे 
सपनों को साकार बनाता है। 

(5)
दर्द को 
सार्वजनिक बना देते हैं आँसू 
और सहानुभूति का पात्र 
बना देते हैं आँसू। 


शनिवार, 24 सितंबर 2011

मैंने भी जीना सीख लिया

आज सिर्फ दो पंक्तियाँ ................

मैंने भी जीना सीख लिया
हालाहल पीना सीख लिया ।


मंगलवार, 20 सितंबर 2011

वक़्त बहुत कम है



ख्वाब देखने मे 
और जीने की जद्दोजहद मे 
कब बीत गयी ज़िंदगी 
पता ही ना चला,


अब वक़्त बहुत कम है 
और काम ज्यादा 
करने को इतना कुछ बाकी है 
कि लेने होंगे कई और जन्म,


उन सब का कर्ज चुकाना है 
जिन्होने दिया स्नेह
और दी खुशियाँ 
जिन्होने दिया जन्म
और सिखाया चलना 
जिन्होने दिखाई राह 
और सिखाया जीना  
जिन्होने दिया दर्द 
और सिखाया रोना,


और हँसना और हँसाना भी तो है 
जो कि अब तक मैं नहीं कर पाया।

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

मिट्टी से भी खुश्बू आए

एक अनकही दास्तान
बनकर ना रह जाये 
ज़िंदगी मेरी 
ख्वाहिस है कि 
किस्से कहानियाँ बन जाये 
ज़िंदगी मेरी,


कुछ कर गुज़रने की तमन्ना 
दिल ही दिल मे 
ना रह जाये कहीं 
वक़्त रहते 
कुछ ऐसा कर गुज़रें 
कि दिलों मे बस जाये 
ज़िंदगी मेरी,


किसी दिन 
मिट्टी मे मिल जाना है
तमन्ना है ये
कि मेरी मिट्टी से भी 
खुश्बू आए ।


नोट- अभी तक ऐसा कुछ नहीं कर पाया हूँ।

शनिवार, 10 सितंबर 2011

LIFE

मेरी १० वर्षीया बेटी मेघा की रचना जो कि उसके विध्यालय की इयर बुक में छपी है, इसे पढ़कर मैं आश्चर्यचकित हूँ कि एक 10 साल की  बच्ची भी ऐसा सोच सकती है। मुझे गर्व है अपनी बेटी पर।

MEGHA
What is life?
Nothing but a contract 
Which we sign and make it fine,
Life is not like a dream
Or water in a stream 
Life is like a ship 
In the middle of a sea
Hope and ambitions are the radar
That makes it tension free
The death is a treat that every man has to eat.

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

प्रेमी हूँ मैं



मैंने देखा है
प्रकृति को बहुत नजदीक से
शरीक हुआ हूँ मैं
उसकी खुशियों मे
और महसूस किया है
उसके दर्द को मैंने
हृदय की गहराइयों से,

देखा है मैंने
बारिश मे पेड़ों को झूमते हुए
पौधों को मुस्कुराते हुए
और कोयल को गाते हुए,

देखा है मैंने
कलियों को खिलते हुए
मदहोश हुआ हूँ मैं
फूलों की खुशबू से,

मेरी आँखों ने देखा है
आसमान मे इंद्रधनुष बनते हुए,

पेड़ पौधों के लिए भी
रोया हूँ मैं
महसूस किया है मैंने
धरती का दर्द
और सुना है
पहाड़ों का रूदन भी,

प्रेमी हूँ मैं
इस खूबसूरत प्रकृति का।


बुधवार, 31 अगस्त 2011

ना शिकवा है कोई, ना शिकायत



आब-ऐ-आतीश बन
ता- उम्र
जलाया था
जिसने मुझे,
मुड के देखा मैंने
उस ज़िन्दगी को,
मुस्कुरा रही थी 
ज़िन्दगी
मुझे देख कर,
और मैं भी
मुस्कुरा रहा था
छुपा कर
अपने जख्मों के निशान 
जो दिए थे उसने,
ना शिकवा है कोई
ना शिकायत ज़िंदगी से
क्योंकि 

जख्म तो दिये थे उसने
पर जख्मों की मरहम भी
उसी ने की थी ।

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

महाबली अन्ना

महाबली अन्ना 


महाबली अन्ना का वार 


अहिंसा का हथियार


होशियार सरकार होशियार 


जाग गयी है जनता


अब खत्म हो भ्रष्टाचार ।



                                                           




सोमवार, 22 अगस्त 2011

शूरवीर अन्ना

शूरवीर अन्ना
निकल पड़े
ब्रह्मास्त्र लिए
रण के मैदान में,
ये युद्ध है
भ्रष्टाचार के विरुद्ध,
सवा करोड़ की सेना देख
दहल उठा है
सत्ता पक्ष
और दहल उठे
सब भ्रष्टाचारी,
अन्ना ने किया है युद्धघोष
अब उठना होगा
हमें चिरनिद्रा से,
और दिखाना होगा
कि हमारी रगों में
अब भी
बहता है खून पानी नहीं!

मंगलवार, 9 अगस्त 2011

वर्ष २१०० की एक कविता



इंडियन आयल की तरंग पत्रिका में इंग्लिश में लिखा हुआ कुछ इस तरह का पढ़ा था जिस से प्रेरित हो कर ये पंक्तियाँ लिखी हैं...


आज अपनी पचासवीं सालगिरह पर 
अस्सी साल का वृद्ध दिख रहा हूँ
और खुद को अस्सी का ही 
महसूस भी कर रहा हूँ
लेकिन फिर भी खुशकिस्मत हूँ
आज बहुत कम लोग हैं जो
पचास को पार करते हैं,


मुझे याद है
जब मैं छोटा था
बगीचों में बहुत से पेड़ 
और घरों में बगीचे हुआ करते थे 
झरने और नदियाँ बहा करती थी
रिमझिम बारिश हुआ करती थी,


मुझे याद हैं
बचपन में मैं बहुत सारे पानी से
नहाया करता था
लेकिन आज भीगे हुए तौलिये से
बदन पौंछता हूँ
अपनी पचासवीं सालगिरह पर
मेरी पेंसन का एक बड़ा हिस्सा
सिर्फ पानी खरीदने में खर्च होता है
फिर भी जरुरत जितना नहीं मिलता,


मुझे याद है
मेरे पिता अस्सी की उम्र में भी
जवान दिखा करते थे
पर आज तो बीस वर्ष का युवा भी
चालीस का दिखता है
और औसत उम्र भी तीस की हो चुकी है,


आज अपनी पचासवीं सालगिरह पर
मैं अपने बेटे को
हरे भरे घास के मैदान
खूबसूरत फूलों
और उन रंग बिरंगी मछलियों की 
कहानियाँ सुना रहा हूँ 
जो नदियों में तैरा करती थी
बता रहा हूँ उसे 
की आम और अमरुद नाम के
फल हुआ करते थे,


आज अपनी पचासवीं सालगिरह पर
मैंने और मेरी पीढ़ी ने
पर्यावरण के साथ 
जो खिलवाड़ किया था 
उसके लिए शर्मिंदा हूँ
जल्द ही शायद इस धरा पर
जीवन संभव नहीं होगा
और इसके जिम्मेदार होंगे 
मैं और मेरी पीढ़ी!

रविवार, 7 अगस्त 2011

मेरे मित्र





गज्जू , मेरे दोस्त बहुत याद आते हो तुम....

 स्वर्गीय मित्र गजेन्द्र सिंह के साथ 
(1)

मेरे मित्र  
आज फिर से 
तुम्हारी याद आई
आँखें कुछ नम हुई 
और विगत स्मृतियों ने
बहुत रुलाया,

ख्यालों ही ख्यालों में सोचता हूँ 
कि तुमसे जब मुलाकात होगी 
तो बहुत सी बातें करूँगा
कुछ शिकवे कुछ शिकायत करूँगा,

पर ख्यालों की ये दुनिया
बड़ी बेरहमी से मुझे
यथार्थ के धरातल पर ले आती है
और ये अहसास कराती है
कि तुम तो वहां जा चुके हो 
जहाँ फ़रिश्ते रहते हैं,

पर मेरा विश्वास कहता है 
कि तुम वहां भी 
मुझे याद करते हो
तभी तो
आज भी तुम 
मेरे आस पास रहते हो!


(2)
हमने तो सोचा था 
सदा रहेगा साथ
तुम बीच राह 
छोड़ चले,

रेत की तरह 
फिसल गए हाथों से 
हम हाथ मलते रहे,


तुम जहाँ भी रहो
रोशनी दिखाना हमें 
अंधेरों से घिर गए हैं हम ,


सहेज कर रखा है 
मैंने उन सुनहरे पलों को 
जब हम गले लगा करते थे
मैं अपनी कहता था
तुम अपनी सुनाते थे,


पर अब 
किससे वो बातें करूँ
और किसको गले लगाऊँ !


बुधवार, 3 अगस्त 2011

भीड़ में अकेला

एक दिन मैं 
अपने सारे उसूलों को 
तिजोरी में बंद कर 
घर से खाली हाथ निकलता हूँ 
और देखता हूँ कि अब मैं 
भीड़ में अकेला नहीं हूँ,
अब मुझे 
दुनियादारी का कुछ सामान 
बाज़ार से खरीदना होगा
और अपने अंतर को
उससे सजाना होगा,
या फिर 
भीड़ में अकेले चलने का 
साहस जुटाना होगा!

शनिवार, 30 जुलाई 2011

बचपन



आज कुछ पुरानी तस्वीरें देख रहा था, बचपन की यादें ताजा हो गयी....

मैं लक्षमण झूले पर 
बर्थडे पार्टी 
आओ लौट चलें बचपन में
फिर से निष्कपट हो जाएँ,
कागज कि कश्ती बनाएं
पानी में बहाएँ,





फिर से देखें वो ख्वाब 
जिनमे परियां थी
और शहजादे थे  
पिता जी कि नसीहत 
और माँ के सपने थे,



आओ लौट चलें बचपन में 
जब मैं छोटा बच्चा था 
फिर से बस्ता उठाएं और स्कूल को जाएँ
भुला कर गम मुस्कुराएँ                                                                                                                   छोटी छोटी खुशियों पर 
उत्सव मनाएँ,




आओ लौट चलें बचपन में
फिर से निष्कपट हो जाएँ!

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

वक़्त मिले तो देखना मुझे


ढलते हुए सूरज की 
किरण हूँ मैं
शाम को वक़्त मिले तो 
देखना मुझे !

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

मेरे हृदय ने कहा है मुझसे...

मेरे ह्रदय ने
कहा  है मुझसे 
कि वो
मेरी संवेदना को
मरने नहीं देगा,
साथ ही उसने
हिदायत दी है मुझे
कि आँखों को समझा दो
व्यर्थ आँसू ना बहाए
और दर्द को
सार्वजनिक ना बनाए,
कानों से कह दो
जब कटु वचन का
प्रहार हो
तब बहरे हो जाएँ,
कदमों को
भटकने ना दो
हाथों को
मत फैलाओ कभी
और होठों पर
मुस्कान सजा लो,
मेरे हृदय ने कहा है मुझसे.....

रविवार, 10 जुलाई 2011

मौन के साम्राज्य में


आओ चलें 
इस भीड़ से दूर कहीं
जहाँ मौन मुखरित हो
और शब्द निष्प्राण,
अपने चेहरे से
मुखौटे को उतार कर
अपने ह्रदय से पूछें 
कुछ अनुत्तरित प्रश्न,
झाड़ कर
वर्षों से जमी धूल
धुले हुए वस्त्र पहनें  
और बैठ कर
मौन के आगोश में
परम सत्य की
खोज करें,
आओ चलें
मौन के साम्राज्य में
जहाँ शब्दहीन ज्ञान 
प्रतीक्षारत है! 

सोमवार, 4 जुलाई 2011

खो गया है चाँद


सितारे हैं परेशान
ना जाने कहाँ 
खो गया है चाँद
हवाओं से कह दो
उड़ा कर ले जाये 
इन बादलों को 
और कहीं
ये जरूर बादलों की
शरारत है!
 

मंगलवार, 28 जून 2011

भूल कर मुस्कुराना

ना जाने क्या हुआ है 
आज इंसान को
भूल कर  मुस्कुराना
ओढ़ ली है 
चादर विषाद की,
किसी को डर है
मर जाने का 
तो कोई जिन्दा लाश 
बना फिरता है,
तिजोरियों में 
बंद है मुस्कान
लबों पे ताले जड़े हैं
रातें अक्सर 
बीत जाती हैं
करवटें बदलते हुए,
कोई शिखर से 
फिसल कर 
औन्धे मुँह गिरा है
ज़मीन पर 
तो कोई
माथे पर सलवटें लिए
शिखर पर 
चढ़ने को बेताब है,
कोई भूख से बेहाल है
तो किसी को  
बदहजमी की शिकायत है,
कोई पी रहा है 
ग़मों को घोल कर
शराब में   
तो किसी को
फिक्र है 
मुरझाये हुए गुलाब की,
ना जाने क्या हुआ है 
आज इंसान को
भूल कर मुस्कुराना
ओढ़ ली है 
चादर विषाद की!

रविवार, 5 जून 2011

मेरा जीवन

जी रहा हूँ
दुनिया में
कुछ इस तरह 
जैसे जाड़े की 
एक सर्द रात में 
किसी ने  
मेरा कम्बल  
मुझसे छीन लिया हो 
और मैं गठरी बना  
दुबका रहा  
बिस्तर में ,
या कुछ इस तरह 
जैसे तपती दुपहरी  
नंगे पैर 
मरुस्थल की सैर!

शनिवार, 28 मई 2011

हे नारी, तुम सच कहना

हे नारी  
तुम सच कहना 
क्या समझी है तुमने 
एक पुरुष की व्यथा
एक निर्धारित 
मानसिकता से परे 
उसका कोमल मन,


सच कहना 
क्या देखा है तुमने   
पसीने से लथपथ 
थककर चूर 
हँसते मुस्कुराते हुए 
रिश्तों की भारी पोटली 
पीठ पर लादे पुरुष,


सच कहना 
क्या देखा है तुमने
तपते रेगिस्तान में 
नंगे पैर चलता पुरुष 
या अभिमन्यु की तरह
चक्रव्यूह में फंसा पुरुष ,


सच कहना 
क्या महसूस किया है तुमने 
कि पुरुष 
सिर्फ बिस्तर पर ही नहीं
अपने अंतर की गहराइयों से भी
प्रेम करता है तुम्हे ,


सच कहना 
क्या कभी देखा है तुमने
इस पत्थर दिल पुरुष को
पिघल कर बहते हुए
या ओस की बूंदें बन 
पत्तों पर लुढ़कते हुए,  


सच कहना
क्या तुम्हारे रूठने पर 
नहीं मनाता पुरुष
या तुम्हारी उलझी हुई लटों को 
नहीं सुलझाता पुरुष,


या तुम अब भी कहती हो 
कि अत्याचारी है पुरुष!
NILESH MATHUR

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