शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

गंगा स्नान

हरिद्वार में हर कि पौडी पर बैठा था तो कुछ इस तरह के विचार मन में आये थे !
(१)
गंगा में डुबकी लगाई
पापों से मुक्ति पायी ,
फिर शुरू होंगे
नए सिरे से
अनवरत पाप!

(२)
हर कि पौडी
हर लेती हर पाप
और हम
फिर से तरोताजा
और पाप करने को !

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

यूँ ही एक दिन !

यूँ ही एक दिन 
चल दूंगा 
अलविदा कहकर तुम्हें ,
पर तुम निराश ना होना 
मेरे होने ना होने से 
क्या फर्क पड़ता है ,
सब कुछ यूँ ही चलता रहेगा 
यूँ ही मेरी तस्वीर 
दीवार पर टंगी होगी
फर्क सिर्फ इतना होगा 
कि इस पर 
नकली फूलों कि माला चढी होगी ,
यूँ ही घर कि घंटी बजेगी
कोई आएगा सहानुभूति दिखाएगा
यूँ ही बनिए की दुकान से 
बाकी में राशन आएगा 
और खाना पकेगा ,
तुम निराश ना होना 
सब कुछ यूँ ही चलता रहेगा
सिर्फ मैं ही तो नहीं रहूँगा ,
मेरे होने ना होने से
क्या फर्क पड़ता है!

सोमवार, 19 अक्तूबर 2009

दीपावली

रौशनी के सारे सौदागर
दिए जलेंगे आज
अंधेरों से लड़ते हुए
 रौशनी में नहाएँगे आज ,
पर कुछ लोग
अपनी खिड़कियाँ
बंद कर लेंगे
इन्हें रौशनी में नहाते देख
और खो जाएँगे अपने
अँधेरे साम्राज्य में आज ,
रौशनी के सारे सौदागर
दिए जलाएँगे आज!

रविवार, 18 अक्तूबर 2009

शब्द

हर बात
शब्दों में बयां नहीं होती
कुछ दर्द
शब्दों से परे होता हैं
कुछ खुशियाँ भी
शब्दों में नहीं समाती
शब्द तो सिर्फ माध्यम है
रोज़मर्रा कि बातें कहने का!

शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

मेरी पहली कविता

झरोखे से देख रह हूँ 

मेरे जीवन में 

खुशियों कि बहार आ रही है 

असमंजस में है मन 

कि द्वार खोल स्वागत करूँ 

या लौटा दूँ इसे 

हवाओं का रुख ले आया है जिसे 

गलती से मेरी जिंदगी में!

मेरा शहर "बीकानेर"(छोटी काशी)

मैं अपने बारे में तो बता चुका, अब मैं अपने शहर जहाँ मैं पला बढा और जो मेरी खुशियों और दुखों का साक्षी रहा है के बारे में थोडा बहुत बता देता हूँ, बीकानेर जिसे कि लोग छोटी काशी भी कहते हैं क्योकि वहां कि गलियां और पुरानी इमारतें और वहां के मस्तमौला लोग मिलते जुलते ही हैं, लगभा ५०० साल पुराना है ये शहर और यहाँ के किले परकोटे साक्षी हैं इसके गर्वीले  इतिहास के, शहर के बीचोबीच यहाँ का किला जूनागढ़ सीना ताने खडा है और परकोटे के अन्दर कि पुरानी हवेलियों कि बेजोड़ कारीगरी तो देखते ही बनती है, पुराने शहर में ब्राह्मणों कि बहुतायत है वैसे तो सभी जातियों के लोग हैं यहाँ पर मुसलमान भी काफी संख्या में है, लेकिन हिन्दू मुस्लिम सभी आपस में बहुत ही भाईचारे के साथ रहते हैं, पुरे हिंदुस्तान में इतने साम्प्रदायिक दंगे हुए बाबरी मस्जिद प्रकरण हुआ लेकिन यहाँ पर उसका कोई असर नहीं हुआ, यहाँ हिन्दू और मुस्लिम आज भी एक थाली में खाते हैं और एक साथ मिलकर सभी त्यौहार मनाते हैं, शाम होते होते यहाँ कि फिजा में मस्ती सी छाने लगती है, शहर में छोटे छोटे चौक हैं और हर चौक में पाटे लगे हुए हैं, जिन पर शाम होते ही लोग जमा हो जाते हैं और फिर गपशप और मौज मस्ती कि दौर चालू हो जाते हैं, एक तरफ कहीं भांग घुट रही होती है, यहाँ के लोग भांग के काफी शौकीन हैं, यहाँ खाने पीने के भी बहुत मजे हैं, मलाई रबड़ी पकौडे मिठाइयां तरह तरह कि चीजें मिलती है कुछ खाने पीने कि दुकाने तो रात १० बजे के बाद खुलती है, वैसे तो सारी दुकाने १२ से १ बजे तक खुली ही रहती हैं, कवि सन्मेलन  और मुशायरे भी यहाँ होते रहते हैं, यहाँ कि भूमि ने बहुत से साहित्यकारों को जन्म दिया है, यादवेन्द्र शर्मा'चन्द्र', हरीश भादाणी और भी कई साहित्यकारों कि जन्मभूमि है ये, और इन सभी के साथ हमारे पारिवारिक सम्बन्ध रहे हैं और इनका आर्शीवाद भी मुझे हमेशा मिलता रहा है, यहाँ के लोग एक दुसरे कि मदद के लिए बहुत उतावले रहते हैं, इन दिनों ये शहर आधुनिकता कि ओर अग्रसर है यहाँ कई बड़े माल और होटल खुल चुके हैं, कुल मिला कर एक बहुत ही शांत और मौज मस्ती वाला शहर है ये, अगर कभी मौका मिले तो एक बार ज़रूर यहाँ जाना चाहिए!

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

जीवन एक संघर्ष

जीवन में बहुत संघर्ष करना पड़ा , जीवन से और यहाँ तक की ख़ुद से भी संघर्ष करता रहा हूँ , परिस्थितिवश या अपनी कमजोरी से मैं अपने आप में इतने बदलाव ले आया हूँ की कभी कभी तो ख़ुद को ही नही पहचान पाता, कुछ बदलाव तो मजबूरीवश लेन पड़े और कुछ अपनी कमजोरीवश, लेकिन मैं कभी नही चाहता था की मैं ऐसा बनू जो मैं आज हूँ! सारांश में कुछ पंक्तियाँ लिख रहा हूँ जो की मैंने तब लिखी थी जब मैं अपने सिद्वांत , ईमानदारी, सच्चाई और अपने ज़मीर से थक चुका था.....
पिता जी ने कहा था
बेटा,सत्य के मार्ग पर चलना
मैं चला,
पर फिसलन बहुत थी वहां
घुटने छिल गए,
गिर कर फिर उठा
और चल पड़ा उस मार्ग पर
जो खुरदरा तो था
पर वहां फिसलन नहीं थी !
जवानी के वो सुनहरे दिन जब पलकों में सपने पलते हैं, मैं चल पड़ा था अपनों से, अपने प्यारे शहर से और अपने अज़ीज़ दोस्तों से दूर एक अजनबी शहर की तरफ़ जहाँ कोई किसी का नही था, हर रिश्ता किसी न किसी स्वार्थ का था, शुरू में अक्सर मैं अकेले में रोया करता था, दोस्तों के ख़त मिला करते थे तो खुशी से आँखें भर आती थी, वो साल था सन् १९९२ का जब मैं बीकानेर से गुवाहाटी आया,  गुवाहाटी में एक समय ऐसा भी आया था जब खाने के लिए जेब में पैसे नही होते थे, और वो ऐसा समय था जब मेरी माँ और पिता जी पूछा करते थे की बेटा काम कैसा चल रहा है और मैं हमेशा कहा करता था की बहुत अच्छा चल रहा है, शायद वो सोचते होंगे की इसका काम तो अच्छा चल रह है लेकिन हमें तो आज तक एक रूपया भी नही भेजा, हालाँकि हमारा वहां भी अच्छा खासा काम है सो मेरे भेजने न भेजने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था पर मैं अपनी स्थिति बता कर उन्हें तकलीफ पहुचाना नही चाहता था, संघर्ष तो जारी है लेकिन आज स्तिथि कुछ ठीक है, सन २००० में शादी हुई और आज दो बच्चे मेघा और राघव के साथ खुश हूँ, लेकिन खुद के जीवन से संतुष्ट नहीं हूँ, जैसी ज़िन्दगी मैं जीना चाहता था वो नहीं जी पाया, लेकिन फिर भी जो कुछ भी जीवन में मिला उसके लिए ईश्वर का धन्यवाद ! शेष फिर!

रविवार, 11 अक्तूबर 2009

एक नई सुरुआत

आज यहाँ पर अपनी भावनाएं लिखने और लोगों के साथ बांटने कि एक नई सुरुआत कर रहा हूँ , और चाहता हूँ कि लोग मुझे और मैं लोगों को समझूँ ! मैं इस धरती पर ज़मीं से जुदा हुआ एक अदना सो इंसान हूँ, लेकिन ज़रूरत से ज्यादा भावुक हूँ, छोटी सी बात पर रो पड़ता हूँ और खुश होने पर भी आँख से आंसू बहने लगते हैं, चाहता हूँ कि जीवन में किसी के दिल को मेरी वज़ह से ठेस न पहुचे, किसी को मेरी वज़ह से यदि ठेस पहुँची हो तो माफ़ी चाहता हूँ! चाहता हूँ कि मेरे घर परिवार दोस्त और हर ज़रूरतमंद के लिए कुछ करूँ, सभी को खुशियाँ बांटू , यही मेरे जीवन का लक्ष्य है! मेरे सपने भी ज्यादा बड़े नही है, बस सब का स्नेह जीवन में मिलता रहे, और हँसते खेलते जीवन रूपी यात्रा को पुरा करूँ!
NILESH MATHUR

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