गुरुवार, 14 मई 2020

क्या कहा सच बोलूँ?


क्या कहा सच बोलूँ
या मन की आँखे खोलूँ?
क्या हँसी खेल है सच बोलना
जो मैं सच बोलूँ,
मैने भी
बोला था सच कभी
जो कुचला गया
झूठ के पैरों तले,
अब मैं
सच बोलने की
हिमाकत करता नहीं
और किसी से
सच बोलने को कहता नहीं।

3 टिप्‍पणियां:

  1. वाह!बहुत सुंदर अभिव्यक्ति आदरणीय सर.
    सादर

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  2. आपने जिस दर्द से सच के कुचलने का अनुभव लिखा है, वो बहुत असली लगता है। मैं कई लोगों को जानता हूँ जो इसी वजह से चुप रहना सीख लेते हैं, क्योंकि हर जगह सच कहने का हौसला नहीं मिलता। आपकी पंक्तियाँ साफ़ दिखाती हैं कि सच बोलना कोई खेल नहीं, बल्कि एक जोखिम है जिसे हर कोई उठा नहीं पाता।

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NILESH MATHUR

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