रविवार, 27 फ़रवरी 2011

तन्हाई

तन्हाई......... 
अंतर को चीरता हुआ
निशब्द 
घोर सन्नाटा, 

तन और मन को 
जैसे 
बर्फ की सफ़ेद चादर ने 
ढक लिया हो ,

ठिठुरते हुए विचार 
झांकते हैं 
हटा कर
बर्फ की चादर,

और करते हैं 
इंतज़ार
धूप के निकलने का, 

जब सूर्य की 
पहली किरण 
के साथ 
कोई आएगा 
और इस तन्हाई को 
दूर करेगा ,

तब फिर से
तन और मन
धूप में बैठ कर 
गुनगुनाएँगे
और ज़श्न मनाएंगे!



बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

ये क्या हो रहा है

सरे बाज़ार 
बिकते हैं इंसान
सबके अलग अलग हैं दाम,
किसी का 
ज़मीर बिक चुका है
तो किसी ने 
इंसानियत बेच खायी,
आबरू लुट रही है 
किसी की
नपुंसक हो गया है 
समाज,
आज तो कौरव 
पांडवों से जीत रहे हैं
और कृष्ण भी 
चुपचाप कोने में खड़े हैं,
अंधों के शहर में 
कुछ लोग
आईने बेच रहे हैं
तो कुछ लोग 
फिरंगी बन
देश को लूट रहे हैं,
खेतों को मिटा कर 
कुछ लोग
महल बना रहे हैं
और हमें 
चिमनिओं का धुँआ 
पिला रहे हैं,
किसी के पास 
तन ढकने को
कपडे नहीं है
तो कहीं  
शर्मोहया को बेचकर
तन दिखाने की 
होड़ लगी है,
कोई अपना ही 
खंजर भौक रहा है
अपनों की पीठ में
तो किसी को 
खून चूसने की
लत लगी है,
माँ से कहानियाँ अब
कोई सुनता नहीं
आज बच्चे भी 
समय से पहले
जवान हो रहे हैं,
बुजुर्गों के लिए 
वृद्धाश्रम बन गए हैं
अब किसी को 
संस्कारों की ज़रूरत नहीं,
रिश्तों की जड़े 
हिल गयी है
मानवता की 
चिता जल रही है,
कृष्ण आप 
चुपचाप कोने में क्यों खड़े हैं!

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

चाँद के साथ

Photo by Debjani Tarafder
चाँद के साथ 
वो भी जाग रही थी 
रात भर
और भीग रहे थे 
चांदनी में 
उसके ज़ज्बात, 
चाँद पर लगे दाग
याद दिलाते थे उसे 
उसके जख्म 
जो ज़िन्दगी ने 
दिए थे, 
कभी जब चाँद 
बादलों में छुप जाता
तो व्याकुल 
हो उठती थी वो,
और उसकी 
नर्म नाज़ुक हथेलियाँ  
बादलों हो हटाने की
कोशिस में 
व्यर्थ ही आसमान की ओर
उठ जाती थी,
लेकिन 
निर्मम बादलों के झुण्ड
नहीं समझ पाते थे
उसकी भावनाओं को
और छुपा कर 
चाँद को 
हँसते थे उस पर,
लेकिन चाँद  
उसकी भावनाओं को 
समझ कर 
बादलों से लडता था
उसकी खातिर,
और दीदार करता था
अपने ही जैसे
धरती के इस चाँद का! 

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

गोडसे अब भी याद है मुझे


इतिहास में 
बड़ा कमजोर हूँ मैं
हुमायूँ का बाप  
और शाहज़हान का बेटा 
याद नहीं मुझे,


मुझे तो याद है
बाबर की बर्बरता
और औरंगजेब की 
साम्प्रदायिकता,


कभी कभी 
याद आते हैं मुझे 
बहादुर शाह ज़फर
और उनके शेर,   


याद है मुझे 
वो झूठे सूरमा
जो अंग्रेजों और मुग़लों के
तलवे चाटते थे, 


याद है शहादत 
भगत और आज़ाद की
सुभाष भी अक्सर 
याद आते हैं मुझे,  



नेहरु मुझे 
कसाई नज़र आते हैं 
और जिन्ना 
जिन्न की तरह 
याद आते हैं, 


भूल चुका हूँ मैं
रक्त रंजित इतिहास,


लेकिन हाँ....
गोडसे अब भी 
याद है मुझे
जिसने एक युग का
अंत किया
सही या गलत 
मैं नहीं जानता..............

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

क्षणिकाएँ

(1)
शमा रात भर जलती रही
रात बेरहम ढलती नहीं
भोर की किरणों ने
बहुत देर कर दी
ना जाने कितने परवाने जल मरे!


(2)
सर्दियों की रात 
बन गयी है
ज़िन्दगी मेरी
लम्बी और लम्बी 
होती जा रही है!


(3)
शायद मौत 
ज़िन्दगी से 
ज्यादा खूबसूरत 
होती होगी,
वरना कोई 
क्यों मरता बेमौत!


(4)
निगाहों से 
क़त्ल करते हैं वो 
और बाइज्ज़त बरी
हो जाते हैं!


(5)
उजड़े हुए चमन का
एक फूल हूँ मैं
माली भी देख कर
नज़रें चुरा लेता है अब!


(6)
मेरी कब्र पे
शमा मत जलाना
मुझे अँधेरे से
मुहब्बत है!


(7)
मुझे कब्र में
चैन से सोने देना
ओ महबूबा मेरी
मैं तेरी नाजो अदा से
तंग आ चुका हूँ!


(8)
चाँद ने 
घूँघट उठा कर
जब देखा ज़मी को
हुस्न बिखरा था
हर तरफ!



NILESH MATHUR

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