सरे बाज़ार
बिकते हैं इंसान
सबके अलग अलग हैं दाम,
किसी का
ज़मीर बिक चुका है
तो किसी ने
इंसानियत बेच खायी,
आबरू लुट रही है
किसी की
नपुंसक हो गया है
समाज,
आज तो कौरव
पांडवों से जीत रहे हैं
और कृष्ण भी
चुपचाप कोने में खड़े हैं,
अंधों के शहर में
कुछ लोग
आईने बेच रहे हैं
तो कुछ लोग
फिरंगी बन
देश को लूट रहे हैं,
खेतों को मिटा कर
कुछ लोग
महल बना रहे हैं
और हमें
चिमनिओं का धुँआ
पिला रहे हैं,
किसी के पास
तन ढकने को
कपडे नहीं है
तो कहीं
शर्मोहया को बेचकर
तन दिखाने की
होड़ लगी है,
कोई अपना ही
खंजर भौक रहा है
अपनों की पीठ में
तो किसी को
खून चूसने की
लत लगी है,
माँ से कहानियाँ अब
कोई सुनता नहीं
आज बच्चे भी
समय से पहले
जवान हो रहे हैं,
बुजुर्गों के लिए
वृद्धाश्रम बन गए हैं
अब किसी को
संस्कारों की ज़रूरत नहीं,
रिश्तों की जड़े
हिल गयी है
मानवता की
चिता जल रही है,
कृष्ण आप
चुपचाप कोने में क्यों खड़े हैं!