शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

कबाड़ी की कविता



कबाड़ी हूँ 
खरीदता हूँ बेचता हूँ 
लेकिन शब्दों को 
सहेज कर रखता हूँ
उन्हें तराश कर 
एक नयी शक्ल देने का 
प्रयास करता हूँ ,
मेरा व्यवसाय भी सहायक है मेरा 
कभी कभी हथोड़े की आवाज 
और मजदूर का पसीना भी शब्द देते हैं मुझे 
इंसान का पिघलना तो नहीं लेकिन 
लोहे का गलना अक्सर देखता हूँ,
ट्रक के घूमते  पहिये में 
जीवन की गति देखता हूँ 
और पंचर टायर में  
जीवन का यथार्थ नजर आता है,
टूटे हुए पुर्जों को देखकर
समझ में आता है कि
रिश्तों की तरह 
इन्हें फिर से जोड़ा तो जा सकता है 
लेकिन वो मजबूती फिर नहीं रहती,  
रेल की पुरानी पटरियां 
बताती है मुझे 
कि सहना क्या होता है 
वे घिस तो जाती हैं 
लेकिन टूटना उन्हें नहीं आता, 
छेनी पर हथौड़े की चोट को
और हथौड़ा चलाते हाथों को 
बहुत नजदीक से देखा है मैंने 
मैंने देखी है उन हाथों की मजबूती ,
मैंने देखा है 
उन मजबूत कन्धों को 
जो उठाते हैं खुद से भी ज्यादा भार  
लेकिन झुकते नहीं, 
सचमुच मैं कबाड़ी हूँ 
हर पुरानी चीज की 
कद्र जानता हूँ 
पुराने रिश्तों को निभाता हूँ 
पुराने दोस्तो को पहचानता हूँ,
हाँ मैं कबाड़ी हूँ 
सब कुछ खरीद
और बेच सकता हूँ 


सिर्फ ईमान को छोड़ कर । 
NILESH MATHUR

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