मंगलवार, 25 जनवरी 2011

महात्मा गाँधी के नाम एक ख़त


पूज्य बापू,

सादर प्रणाम, आपको गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामना, आशा ही नहीं हमें पूर्ण विश्वास है कि आप कुशलता से होंगे। हम सब भी यहाँ मजे में हैं। गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर देश और समाज की स्थिति से आपको अवगत करवाने के लिए मैंने ये ख़त लिखना अपना कर्त्तव्य समझा। कुछ बातों के लिए हम आपसे माफ़ी चाहते हैं जैसे कि आपके बताए सत्य और अहिंसा के सिद्धांत में हमने कुछ परिवर्तन कर दिए हैं, इसे हमने बदल कर असत्य और हिंसा कर दिया है, और इसमें हमारे गांधीवादी राजनीतिज्ञों का बहुत बड़ा योगदान रहा है, वो हमें समय समय पर दिशाबोध कराते रहते हैं और हमारा मार्गदर्शन करते रहते हैं। इन्हीं के मार्गदर्शन में हम असत्य और हिंसा के मार्ग पर निरंतर अग्रसर हैं, बाकी सब ठीक है।
आपने हमें जो आज़ादी दिलवाई उसका हम भरपूर फायदा उठ रहे हैं। भ्रस्टाचार अपने चरम पर है, बाकी सब ठीक है।
हर सरकारी विभाग में आपकी तस्वीर दीवारों पर टँगवा दी गयी है और सभी नोटों पर भी आपकी तस्वीर छपवा दी गयी है। इन्हीं नोटों का लेना-देना हम घूस के रूप में धड़ल्ले से कर रहे हैं, बाकी सब ठीक है। स्वराज्य मिलने के बाद भी भूखे नंगे आपको हर तरफ नज़र आएँगे, उनके लिए हम और हमारी सरकार कुछ भी नहीं कर रहे हैं, हमारी सरकार गरीबी मिटाने की जगह गरीबों को ही मिटाने की योजना बना रही है, बाकी सब ठीक है।
बापू हमें अफ़सोस है की खादी को हम आज तक नहीं अपना सके हैं, हम आज भी विदेशी वस्त्रों और विदेशी वस्तुओं को ही प्राथमिकता देते हैं, बाकी सब ठीक है।
अस्पृश्यता आज भी उसी तरह कायम है। जिन दलितों का आप उत्थान करना चाहते थे, उनकी आज भी कमोबेश वही स्थिति है, बाकी सब ठीक है।
बापू आजकल हम सत्याग्रह नहीं करते, हमने विरोध जताने के नए तरीके इजाद किये हैं। आज कल हम विरोध स्वरुप बंद का आयोजन करते हैं और उग्र प्रदर्शन करते हैं, जिसमें कि तोड़फोड़ और आगज़नी की जाती है, बाकी सब ठीक है।
जिस पाकिस्तान की भलाई के लिए आपने अनशन किये थे, वही पाकिस्तान आज हमें आँख दिखाता है, आधा काश्मीर तो उसने पहले ही हड़प लिया था, अब उसे पूरा काश्मीर चाहिए। आतंकियों की वो भरपूर मदद कर रहा है। हमारे देश में वो आतंक का नंगा नाच कर रहा है। आये दिन बम के धमाके हो रहे हैं और हजारों बेगुनाह फिजूल में अपनी जान गँवा रहे हैं, बाकी सब ठीक है।
बांग्लादेश के साथ भी हम पूरी उदारता से पेश आ रहे हैं, वहां के नागरिकों को हमने अपने देश में आने और रहने की पूरी आज़ादी दे रखी है, करोड़ों की संख्या में वे लोग यहाँ आकर मजे में रह रहे हैं, और हमारे ही लोग उनकी वजह से भूखे मर रहे हैं, बाकी सब ठीक है।
बापू हम साम्प्रदायिक भाईचारा आज तक भी कायम नहीं कर पाए हैं। धर्म के नाम पर हम आये दिन खून बहाते हैं। आज हमारे देश में धर्म के नाम पर वोटों की राजनीति खूब चल रही है। साम्प्रदायिक हिंसा आज तक जारी है। बाकी सब ठीक है।
बापू आज आप साक्षात यहाँ होते तो आपको खून के आंसू रोना पड़ता, बापू आपने नाहक ही इतना कष्ट सहा और हमें आज़ादी दिलवाई, हो सके तो हमें माफ़ करना।

आपका अपना-
एक गैर जिम्मेदार भारतीय नागरिक

रविवार, 23 जनवरी 2011

मेरा कुछ सामान (२)



संघर्ष के दिनों की कुछ और रचनाएँ........
(1) मेरा स्कूटर 

मेरा स्कूटर 
हार्ट की बिमारी से 
ग्रस्त है 
लेकिन फिर भी
बेचारा मुझे
खांसते कराहते हुए 
अपनी पीठ पर लिए फिरता है,
सोचता हूँ किसी दिन 
जब जेब हरी भरी होगी
तो इसका भी इलाज 
किसी अच्छे डाक्टर से 
करवाऊंगा! 

(२) मेरा प्यार



मेरा प्यार 
आजकल नाराज है मुझसे
क्योंकि कड़की चल रही है 
इन दिनों,
झगडे की जड़ है
मेरी जेब
जो इजाज़त नहीं देती
तोहफा खरीदने की,
शायद प्यार भी 
मुफ्त में
नहीं मिलता है 
इन दिनों!


(3) मेरा चूल्हा 

मेरा चूल्हा 
जो अक्सर
जलता नहीं
और मैं
तपती धूप में
जलता हूँ,
मुझे जलने कि एवज में
जो मिलता है
मेरे चूल्हे का
दिल
उससे नहीं बहलता, 

जिस तरह 
मैं 
जलकर भी
उसे जला नहीं पता,
वो जलकर मुझे 
भरपेट खिला नहीं पता!


(4) पहली तारीख 


महीने की पहली तारीख  
अक्सर डराती है मुझे 
सपने में नज़र आते हैं मुझे
भयानक शक्ल में 
मकान मालिक, 
बनिया,
और वो महाजन
जिससे मैंने कर्ज ले रखा है,
मेरे दोस्त भी 
इन दिनों  
मुझे देखते ही
नज़रे चुराने लगते है
क्योंकि उन्हें भी
मैं बता चुका हूँ
सपने के बारे में,
हर दिन 
इक उम्मीद लिए
घर से निकलता हूँ
और नाउम्मीदगी को 
साथ लिए 
वापस आ जाता हूँ
और फिर से 
रात भर सपने में
मकान मालिक,
बनिया, 
और महाजन को देखता हूँ!









सोमवार, 17 जनवरी 2011

मेरा कुछ सामान

एक समय था जब जीवन में बहुत संघर्ष चल रहा था, उस समय की कुछ अजीब सी रचनाएँ..........

(1) मेरा जूता

मेरे पैर का अंगूठा
अक्सर मेरे
फटे हुए जूते में से
मुह निकाल कर झांकता है
और कहता है...
कम से कम अब तो
रहम करो
इस जूते पर और मुझ पर
जब भी कोई पत्थर देखता हूँ
तो सहम उठता हूँ ,
इतने भी बेरहम मत बनो
किसी से कर्ज ले कर ही
नया जूता तो खरीद लो !

(२) मेरी कमीज

मेरी कमीज
जिसकी जेब
अक्सर खाली रहती है
और मेरी कंगाली पर
हंसती है,
मैं रोज सुबह
उसे पहनता हूँ
रात को पीट पीट कर
धोता हूँ
और निचोड़कर सुखा देता हूँ
शायद उसे
हंसने की सजा देता हूँ !

(3)मेरी पतलून

मेरी पतलून
जो कई जगह से फट चुकी है
उसकी उम्र भी
कब की खत्म हो चुकी है,
फिर भी वो बेचारी
दम तोड़ते हुए भी
मेरी नग्नता को
यथासंभव ढक लेती है,
फिर
परन्तु मैं
भी नयी पतलून खरीदने को आतुर हूँ !

(4) मेरा ट्रांजिस्टर

आज फिर से
मेरा ट्रांजिस्टर
याचना सी कर रहा है मुझसे
अपनी मरम्मत के लिए,

एक समय था
जब बहुत ही सुरीली तान में
वो बजता था
और मैं भी
उसके साथ गुनगुनाता था,

पर आज
मरघट सा सन्नाटा है
मेरे घर में
बिना ट्रांजिस्टर के !

(5) मेरा फूलदान

मेरे घर का फूलदान
जिसे मैंने
नकली फूलों से सजाया है,

अक्सर मुझे
तिरछी नज़रों से देखता है,

मानो कह रहा हो....
कि तुम भी
इन्ही फूलों जैसे हो
जो ना तो खुश्बू देते है
और ना ही
जिनकी जड़ें होती है !

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

दुश्वारियों की ज़िद



खुदा की इबादत भी 
कर के देख चुका मैं 
पर मेरी दुश्वारियों की ज़िद
शुभानअल्लाह !

रविवार, 9 जनवरी 2011

आओ प्रेम करें

जब भी
प्रकृति के करीब जाता हूँ
अपनी जड़ों को
पा जाता हूँ,
पेड़ पौधे
अपने पूर्वज नजर आते हैं मुझे
पर्वतों में
नज़र आते हैं राम,
जल धारा
माँ गंगा सी दिखती है
फूलों में
नज़र आते हैं श्याम,
बादलों में
इन्द्र दिखते हैं
धरती में
नज़र आती अपनी माँ,
कण कण में
नज़र आते हैं शिव
पशु पक्षी लगते जैसे
अपनी ही संतान,
प्रकृति भी हमें
रखती ऐसे
जैसे माँ रखती
अपनी संतान!

मुदिता जी (अहसास अंतर्मन के) की एक टिप्पणी से प्रेरित हो कर लिखी है!


शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

हाँ मुझे प्रेम है

हाँ मुझे प्रेम है
बादलों से, बारिश की बूंदों से
रेत से, हवाओं से
दरख्तों से, पर्वतों से
प्रकृति से
ईश्वर की हर कृति से,
और प्रेम है तो
दर्द भी होगा,
जब पर्वतों को
जमींदोज किया जाता है
तो याद आते हैं मुझे
बामियान के बुद्ध
जिन्हें तालिबान ने
जमींदोज किया था,
जब दरख्तों के सीने पर
चलते हैं खंजर
तो याद आते हैं मुझे
ईशा मसीह
जिनका रक्त
भलाई करने कि एवज में
बहा दिया गया,
और प्रकृति से जब
छेड़छाड़ होती है
तो याद आता है मुझे
सर्वनाश!!!
हाँ मुझे प्रेम है
प्रकृति से
ईश्वर की हर कृति से,
अगर बचना है
सर्वनाश से
तो आओ हम सब करें
प्रेम प्रकृति से
ईश्वर की हर कृति से!
NILESH MATHUR

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