शनिवार, 20 नवंबर 2010

आस्था

जब हताश हो उठता है मन

तो बेजान पत्थरों में

नज़र आती है 

उम्मीद कि किरण

और फिर पूजने लगते हैं

पत्थरों को देवता बनाकर!

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

अलविदा

यूँ ही एक दिन 
चल दूंगा 
अलविदा कहकर तुम्हें ,

पर तुम निराश ना होना 
मेरे होने ना होने से 
क्या फर्क पड़ता है ,

सब कुछ यूँ ही चलता रहेगा 
यूँ ही मेरी तस्वीर 
दीवार पर टंगी होगी
फर्क सिर्फ इतना होगा 
कि इस पर 
इक माला चढी होगी ,

यूँ ही घर कि घंटी बजेगी
कोई आएगा सहानुभूति दिखाएगा
यूँ ही बनिए की दुकान से 
बाकी में राशन आएगा 
और खाना पकेगा ,

तुम निराश ना होना 
सब कुछ यूँ ही चलता रहेगा
सिर्फ मैं ही तो नहीं रहूँगा ,

मेरे होने ना होने से
क्या फर्क पड़ता है!

रविवार, 14 नवंबर 2010

मेरा जीवन

गिरता हूँ उठता हूँ
फिर चल देता हूँ
बचपन से लेकर अब तक
बार बार यही सिलसिला,
बचपन में थामने के लिए
हाथ हुआ करते थे
अब गिरने पर
खुद ही सम्हलना पड़ता है,
बचपन में गिरता था
तो रो लेता था
अब तो रोना भी
हंसी का पात्र बना देता है,
मिटटी में मिल जाने का दिन
करीब और करीब आ रहा है
मैं अब तक ठीक से
ये भी ना समझ पाया
कि मैं कौन हूँ
कहाँ से आया हूँ
और क्यों आया हूँ,
उलझा रहा सदा
विचित्र से जालों में
ढूंढ़ता रहा 
प्रेम, त्याग, सेवा, रिश्ते
जैसे शब्दों के अर्थ
कम शब्दों में कहूँ तो
अब तक का जीवन 
रहा व्यर्थ!

बुधवार, 10 नवंबर 2010

मुक्तिदाता

मैं पथिक
एकांत पथ पर चला जा रहा था
हर तरफ
कोहरे का साम्राज्य,
एक दिन
पत्तों पर अपने ओसकण छोड़ कर
कोहरा हटा
और मुझे दिखी उस पथ की सुन्दरता
जिस पर मैं
अनमना सा चलता रहा था
दूर तक,
और उसी पथ पर
मेरे स्वागत में
मुस्कराते हुए खड़े थे
मेरे मुक्तिदाता!

बुधवार, 3 नवंबर 2010

ये कैसी दीपावली है?

child labour at fireworks factory
आज फिर से 

हम दीपावली मनाएंगे 
जिनके घरों में 
चूल्हे भी नहीं जले
उन्हें शर्मशार करते हुए 
घी के दीप जलाएँगे,

धमाकों की आवाज में
छुप जाएंगा रुदन उनका   
child labour at fireworks factory
और वो भूखे पेट निहारेंगे 
रोशनी से जगमगाते शहर को,

आज फिर से 
हम भूखे नंगों के बीच 
नए कपडे पहन कर निकलेंगे
child labour at fireworks factory
और नोटों के बण्डल 
पटाखों के रूप में जलाएँगे,

कोई बिनब्याही बेटी का बाप
दहल जाएगा इनके धमाकों से
और कोई बच्चा 
हसरत भरी निगाहों से 
निहारेगा फुलझड़ियों को ,

आज फिर से 
हम इन बुझे हुए चेहरों के बीच
दीप जलाएँगे
और दीपावली मनाएंगे,


क्या ये दीप 
The result of making fireworks
उन बुझे हुए चेहरों को 
रोशन कर पाएँगे?


क्या ये दीप 
उन अन्धकार में डूबे घरों को
ज़रा सी रोशनी दिखाएँगे? 


क्या ये दीप 
हमारे अंतर के अन्धकार को 
मिटा पाएंगे ? 


क्या हम सचमुच 
कभी रोशनी में नहाएँगे ?
  

NILESH MATHUR

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