शनिवार, 29 मई 2010

अंग्रेजों भारत छोड़ो


दीपक 'मशाल' जी कि लघु कथाओं से प्रेरित हो कर मैंने भी एक प्रयास किया है.......................... 

वो आज तक पागलों कि तरह चिल्लाता था कि अंग्रेजों भारत छोड़ो हमें आज़ादी चाहिए, आज़ादी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, कोई ६४-६५ साल पुराना फटेहाल तिरंगा लिए इधर से उधर दौड़ता हुए नारे लगाता रहता था, और सुभाष चन्द्र बोसे से तो वो अक्सर सवाल करता था कि तुमने खून माँगा था हमने दिया फिर हमें अब तक आज़ादी क्यों नहीं मिली? पर ना जाने क्यों गाँधी जी और नेहरु जी से वो हमेशा कुछ नाराज सा रहता था उसे विस्वाश ही नहीं था कि ये हमें आज़ादी दिलवा सकते हैं, कभी कभी वो भगत सिंह को याद करके दहाड़ें मार मार कर रोने लगता था और कहता था कि मेरा भगत अगर आज जिंदा होता तो ये फिरंगी कब के भाग खड़े होते, सारा मोहल्ला उससे परेशान था, मैं अक्सर उसे अपने कमरे कि खिड़की से देखा करता था, उसे देख कर मुझे भी ऐसा लगता था कि भारत आज भी गुलाम है, वो अक्सर घरों के सीसे ये कह कर तोड़ देता था कि इस घर में फिरंगी रहते हैं और फिर बहुत मार भी खाता था, एक दिन उसने मेरे घर का शीशा तोड़ दिया और बोला कि इस घर में भी ज़रूर फिरंगी रहते है, एक मेम रोज सुबह विलायती वस्त्र पहन कर इस घर से निकलती है और बच्चे को स्कूल छोड़ने जाती है, मैंने उसे कुछ नहीं कहा मुझे लगा कि ठीक ही तो कहता था वो, हम खुद ही आज फिरंगी बन कर अपने देश को गुलामी कि जंजीरों में जकड रहे है! 
परन्तु अब से कुछ ही देर पहले एक विलायती कार उस पागल को रौंद कर चली गयी, उसकी लाश मुट्ठी बंद किये नारा लगाने वाले अंदाज में सड़क के बीचों बीच पड़ी है, और एक हाथ में उसने कस कर तिरंगे को पकड़ रखा है! पूरे मोहल्ले में आज पहली बार मरघट सा सन्नाटा है और मैं बंद खिड़की कि झीरी से झांक कर उसे देख रहा हूँ!

सोमवार, 24 मई 2010

औरत अब प्रश्न करने लगी है ज़िन्दगी से!

दुखों को 
निशब्द पीते हुए
घुट घुट कर 
जीते हुए 
औरत अब प्रश्न करने लगी है
ज़िन्दगी से................
क्या इसी का नाम
ज़िन्दगी है?
अगर हाँ 
तो मौत क्या है?
ये प्रश्न सुन 
ज़िन्दगी निशब्द हो जाती है
और समाज के माथे पर
सलवटें उभर आती है,
और फिर वो कहता है......
किसने दिया औरत को ये हक
की वो ज़िन्दगी से 
इस तरह के प्रश्न करे,
और साथ ही घबरा जाता है वो
कि इस प्रश्न कि गूंज 
कोई तूफ़ान ना खड़ा कर दे,
बहुत चिंताजनक है ये 
कि औरत अब 
प्रश्न करने लगी है जिंदगी से!

गुरुवार, 20 मई 2010

क्या मर चुके हैं शब्द?

संध्या गुप्ता जी की कविता "चुप नहीं रह सकता आदमी" से प्रेरित हो कर ये रचना लिखी है........


सिर्फ फुसफुसाहट है यहाँ


निशब्द घोर सन्नाटा


क्या मर चुके हैं शब्द


या जुबां कट चुकी है


क्यों है मौन पसरा हुआ


क्या मर चुका है विरोध


या संवेदनाओं ने 


दम तोड़ दिया?

सोमवार, 17 मई 2010

फिर शब्दों के सिर कटते हैं

कभी कभी सोचता हूँ की लिखना कितना आसान होता है, गरीबी पर, अनपढ़ गरीब बच्चो पर, भूखे बच्चों पर, प्रताड़ित औरत पर, प्रेम पर, संवेदना पर, जुदाई पर, रिश्तों पर,  ईमानदारी पर, आत्मसम्मान पर, ,माँ पर, आज़ादी पर या और भी बहुत कुछ है जिस पर हम बहुत अच्छी कविताएँ या रचनाएँ लिखते हैं, लेकिन क्या हम लिखने और प्रशंशा बटोरने के अलावा भी कुछ करते हैं? अगर नहीं तो हमें अपनी कलम को तोड़ कर फेंक देना चाहिए और चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए, कभी कभी लगता है की जिनके पेट भरे हुए होते हैं वही भुखमरी पर अच्छा लिख सकते हैं, और कभी कभी तो मुझे बहुत ही मार्मिक रचना पर भी हंसी आ जाती है, लगता है की हम कितने बड़े फरेबी हैं,  संवेदनशीलता को हम भुनाते हैं, लगता है की हम इतने बेशर्म हो चुके हैं की सिर्फ अच्छे अच्छे शब्दों का चक्रव्यूह बना कर खुद को और सारी दुनिया को धोखा देते हैं, मैं खुद को सबसे बड़ा दोषी मानता हूँ, बाकी सब को मेरे बाद..........


मेरी कलम में बहुत ताक़त है


जब भी कहीं अत्याचार देखता हूँ


मेरी कलम तलवार बन जाती है


फिर शब्दों के सिर कटते हैं


लहू बिखर सा जाता है !


लेकिन सिर्फ शब्दों के सिर काटने से काम नहीं चलेगा, हम जो लिख रहे हैं उस को व्यवहार में लाना होगा और सच में निस्वार्थ भाव से शब्दों पर अमल करना होगा, तभी हम सही मायने में अपने शब्दों से न्याय करेंगे! किसी को बुरा लगा हो तो क्षमा, अच्छा लगा हो तो आभार!


मैं भी कोशिश करूँगा


की सिर्फ शब्दों के जाल ना बुनू


शब्दों से परे भी इक ज़हां है


कभी उधर का भी रुख करूँ !

गुरुवार, 13 मई 2010

यहाँ शब्द बिकते हैं!






बाबु जी यहाँ शब्द बिकते हैं
ये शब्दों का मेला है,


मैंने भी दुकान सजा रक्खी है 
मेरे भी शब्द देखो 
ज़रा रूककर 
प्रेम संवेदना सब कुछ है इनमे,


देखो तो ज़रा रूककर
किस खूबसूरती से मैंने
शब्दों को सजा रक्खा है
और फिर दाम भी तो ज्यादा नहीं है
सिर्फ प्रशंशा के दो चार शब्द दे जाना,


बाबु जी यहाँ शब्द बिकते हैं
ये शब्दों का मेला है,


एक बात बता देता हूँ मैं 
की ये शब्द सिर्फ शब्द ही हैं
इनके गूढ़ अर्थों में ना जाना
हो सकता है की आप
इसके अर्थ के चक्कर में 
इन्हें खरीद लो 
और फिर पछताओ,


सच कहता हूँ बाबु जी
धोखा या फरेब नहीं करता
ये सिर्फ सुन्दर से शब्द हैं
एक धुलाई के बाद 
रंग उड़ जाए
तो मुझे दोष ना देना!  


बाबु जी यहाँ भी आओ 
मैंने भी दुकान सजा रक्खी है!
बड़े सुन्दर शब्द हैं मेरे
कुछ पल के लिए ही सही 
आप भी सजा सकते हो अपने घर को
मेरे इन शब्दों से,


लेकिन एक बात समझ लेना बाबु जी 
इन शब्दों की कोई गारंटी नहीं है!


क्योंकि 
बाबु जी यहाँ शब्द बिकते हैं 
ये शब्दों का मेला है!

शुक्रवार, 7 मई 2010

विभाजन की त्रासदी

एक मुल्क के सीने पर
जब तलवार चल रही थी
तब आसमाँ रो रहा था
और ज़मी चीख रही थी,


चीर कर सीने को
खून की एक लकीर उभर आई थी
उसे ही कुछ लोगों ने
सरहद मान लिया था,


उस लकीर के एक तरफ
जिस्म
और दूसरी तरफ
रूह थी,


पर कुछ इंसान
जिन्होंने जिस्म से रूह को
जुदा किया था
वो होठो में सिगार
और विलायती वस्त्र पहन
कहकहे लगा रहे थे,


और कई तो
फिरंगी औरतों संग
तस्वीर खिचवा रहे थे,
और भगत सिंह को
डाकू कहने वाले
मौन धारण किये
अनशन पर बैठे थे,


शायद वो इंसान नहीं थे
क्योंकि विभाजन की त्रासदी से
वो अनजान नहीं थे!

बुधवार, 5 मई 2010

बांग्लादेश का दोस्ताना कदम

हमारा पडौसी बंगलादेश जिसे हम अच्छी नज़रों से नहीं देखते अगर हमारे देश के लिए कुछ अच्छा या सकारात्मक कार्य कर रहा है तो उसके लिए उसकी प्रशंशा करनी भी ज़रूरी है! बांग्लादेश रायफल्स ने बीती एक मई को आतंकवादी संगठन एन.डी.ऍफ़.बी. के मुखिया रंजन दैमारी जो की कई बम विस्फोटों का जिम्मेदार है को गिरफ्तार करके भारत सरकार को सौप दिया, पिछले छह महीने में बांग्लादेश ने उल्फा के बड़े नेता अरविन्द राजखोवा सहित और भी कई आतंकवादियों को भारत सरकार के हवाले किया है, जो की एक सकारात्मक कदम है, जिसके लिए बांग्लादेश सरकार की तारीफ़ की जानी चाहिए, हम उम्मीद करते हैं की भविष्य में भी ऐसा ही सहयोग हमें मिलता रहेगा, और बांग्लादेशियों की अवैध घुसपैठ के मुद्दे पर भी कुछ सकारात्मक कदम उठाए जाएँगे!

सोमवार, 3 मई 2010

आवारा बादल !

आज कुछ पंक्तियाँ लिखते लिखते अपने ब्लॉग का नाम भी बदल दिया कैसा लगा बताइयेगा ज़रूर !


आवारा बादल हूँ
जब चाहूँ
आसमान में छा जाऊ,


बस इक चाहत है


अपनी आवारगी
बंजर भूमि पर दिखलाऊ !

शनिवार, 1 मई 2010

मजदूर दिवस पर!

एक मजदूर,
सपने भी शर्माते हैं
उसकी आँखों में आने से,

आ भी जाते हैं कभी
भूले भटके
तो बह जाते हैं उसके पसीने में
और कभी बूंदें बनकर
टपकते हैं उसकी आँखों से,

छोटे छोटे ही तो होते हैं
सपने उसके
बीमार माँ कि दवा के सपने
चूल्हे में लकड़ी के सपने
बेटे कि पढाई के सपने
बेटी कि मेहंदी के सपने
दो जून कि रोटी के सपने ,

परन्तु उसकी मेहनत के बदले
पैसे कम मिलते हैं
गालियाँ  ज्यादा,
उसके सपने
पूंजीपतियों की तिजोरियों में
दम घुट कर मर जाते हैं,

और एक दिन वो भी
सब सपनों को अधूरा छोड़
दम घुट कर मर जाता है
बोझ तले,

तब उसका मालिक
महानता दिखलाते हुए
लकड़ियों का दान करता है
उसे जलने के लिए
और महान कहलाता है !

दम तोड़ते वृक्ष !





















वो देखो

गंजे पहाड़ों पर
वृक्ष दम तोड़ रहे हैं, 


फिर भी हमें


शीशम के पलंग पर
सोना है !
NILESH MATHUR

यह ब्लॉग खोजें

www.hamarivani.com रफ़्तार