मंगलवार, 28 जून 2011

भूल कर मुस्कुराना

ना जाने क्या हुआ है 
आज इंसान को
भूल कर  मुस्कुराना
ओढ़ ली है 
चादर विषाद की,
किसी को डर है
मर जाने का 
तो कोई जिन्दा लाश 
बना फिरता है,
तिजोरियों में 
बंद है मुस्कान
लबों पे ताले जड़े हैं
रातें अक्सर 
बीत जाती हैं
करवटें बदलते हुए,
कोई शिखर से 
फिसल कर 
औन्धे मुँह गिरा है
ज़मीन पर 
तो कोई
माथे पर सलवटें लिए
शिखर पर 
चढ़ने को बेताब है,
कोई भूख से बेहाल है
तो किसी को  
बदहजमी की शिकायत है,
कोई पी रहा है 
ग़मों को घोल कर
शराब में   
तो किसी को
फिक्र है 
मुरझाये हुए गुलाब की,
ना जाने क्या हुआ है 
आज इंसान को
भूल कर मुस्कुराना
ओढ़ ली है 
चादर विषाद की!

रविवार, 5 जून 2011

मेरा जीवन

जी रहा हूँ
दुनिया में
कुछ इस तरह 
जैसे जाड़े की 
एक सर्द रात में 
किसी ने  
मेरा कम्बल  
मुझसे छीन लिया हो 
और मैं गठरी बना  
दुबका रहा  
बिस्तर में ,
या कुछ इस तरह 
जैसे तपती दुपहरी  
नंगे पैर 
मरुस्थल की सैर!

NILESH MATHUR

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