मर जाने का
तो कोई जिन्दा लाश
बना फिरता है,
तिजोरियों में
बंद है मुस्कान
लबों पे ताले जड़े हैं
रातें अक्सर
बीत जाती हैं
करवटें बदलते हुए,
कोई शिखर से
फिसल कर
औन्धे मुँह गिरा है
ज़मीन पर
तो कोई
माथे पर सलवटें लिए
शिखर पर
चढ़ने को बेताब है,
कोई भूख से बेहाल है
फिसल कर
औन्धे मुँह गिरा है
ज़मीन पर
तो कोई
माथे पर सलवटें लिए
शिखर पर
चढ़ने को बेताब है,
कोई भूख से बेहाल है
तो किसी को
बदहजमी की शिकायत है,
कोई पी रहा है
ग़मों को घोल कर
शराब में
तो किसी को
फिक्र है
मुरझाये हुए गुलाब की,
ना जाने क्या हुआ है
आज इंसान को
भूल कर मुस्कुराना
ओढ़ ली है
चादर विषाद की!