आवारा बादल हूँ मैं, कभी यहाँ तो कभी वहाँ, भटकना ही तो फितरत है मेरी.....
मंगलवार, 15 जनवरी 2013
प्रगति के पथ पर
साभार गूगल
नदियों का रुख मोड़ कर पहाड़ों को भेद कर बिजली बनाएँगे बस्तियों को उजाड़ कर इमारतें बनाएँगे खेतों की जगह कारखाने बनाएँगे इन पहाड़ों, नदियों, खेतों, बस्तियों और समूची प्रकृति को रौंद कर
भावो को संजोये रचना......
जवाब देंहटाएंअगर मन में ठान लों तो सब कुछ हो सकता है
जवाब देंहटाएंविरोधाभास को दर्शाती रचना
जवाब देंहटाएंप्रकृति के साथ चलें तो सब कुछ हो सकता है..पर उसे विजेता की तरह रौंद कर तो मानव विनाश की ओर ही जायेगा,
जवाब देंहटाएंप्रकृति का नाश कर प्रगति संभव नहीं... अच्छी रचना, बधाई.
जवाब देंहटाएंप्रगति के पथ पर
जवाब देंहटाएंबढ़ना है,
क्या ये संभव है??
बहुत बढ़िया है-- हाँ सब संभव है----बधाई
jenny ji se sahmat .....unhi ke shabd ek baar fir ...
जवाब देंहटाएंप्रकृति का नाश कर प्रगति संभव नहीं... अच्छी रचना, बधाई.