आब-ऐ-आतीश बन
ता- उम्र
जलाया था
जिसने मुझे,
मुड के देखा मैंने
उस ज़िन्दगी को,
मुस्कुरा रही थी
ज़िन्दगी
मुझे देख कर,
और मैं भी
मुस्कुरा रहा था
छुपा कर
अपने जख्मों के निशान
जो दिए थे उसने,
ना शिकवा है कोई
ना शिकायत ज़िंदगी से
क्योंकि
जख्म तो दिये थे उसने
पर जख्मों की मरहम भी
उसी ने की थी ।
पर जख्मों की मरहम भी
उसी ने की थी ।
bahut sundar khayaalat..
जवाब देंहटाएंज़ख्म भी मलहम भी ....इस पिटारे में सब कुछ है ....
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ! जो जख्म देता है वही मलहम भी देता है... फिर कैसी शिकायत ?
जवाब देंहटाएंzakhm ke saath marham bhi... tab to kaisi shikayat !
जवाब देंहटाएंना शिकवा है कोई
जवाब देंहटाएंना शिकायत ज़िंदगी से
क्योंकि
जख्म तो दिये थे उसने
पर जख्मों की मरहम भी
उसी ने की थी ।
गहन अनुभूतियों और जीवन दर्शन से परिपूर्ण इस रचना के लिए बधाई।
मेरे ब्लॉग्स पर भी आपका स्वागत है -
http://ghazalyatra.blogspot.com/
http://varshasingh1.blogspot.com/
जिन्दगी तो जिन्दगी है उस से
जवाब देंहटाएंकैसे गिलाशिकावा है कोई ....
--
anu
बहुत खूब लिखा है आपने जिन्दगी जख्म देती जरूर है पर अनजाने मे मलहम भी लगा ही देती है
जवाब देंहटाएंबहुत बढि़या ।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंBahut sunder bhav...
जवाब देंहटाएंबेहद सुन्दर कविता
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