मेरी सेल्फ में बंद पुस्तकों ने
आन्दोलन करने की ठानी है
मैं आजकल
ब्लॉग जगत में विचरता हूँ
उन्हें परेशानी है,
मैं भी असमंजस में हूँ
कि इन पुस्तकों को पढू
या ब्लॉग जगत में ही
विचरता फिरू,
इस छोटे से जीवन में
मैं क्या क्या करू !
पुस्तकें अक्सर
नाराज होकर
शिकायत भी करती है मुझसे
तब मैं उन्हें मनाता हूँ
और कहता हूँ .........
प्रिये, नाराज ना होना मुझसे
तुम तो मेरी जान हो,
ये कहकर एक पुस्तक उठाता हूँ
और बिस्तर पर औंधे मुह लेटकर
पढ़ते पढ़ते सो जाता हूँ !
बुधवार, 28 अप्रैल 2010
शनिवार, 24 अप्रैल 2010
मेरे मरने पर !
मेरे मरने पर
याद करना मुझको तुम
ग्यारह दिन,
बारहवें पर
गुलाब जामुन खाना
और मौज उडाना,
तस्वीर मेरी
बरामदे में जरुर लगाना
बारहवें पर फूल चढ़ाना
फिर बारह महीने तक भूल जाना,
अगले साल
बरसी पर ही
नए फूल लाना
और अगले बारह महीनों के लिए
उन्हें चढ़ाना,
याद जब मेरी आए
तस्वीर पर की
धूल हटाना
बरामदे में मेरी तस्वीर ज़रूर लगाना !
याद करना मुझको तुम
ग्यारह दिन,
बारहवें पर
गुलाब जामुन खाना
और मौज उडाना,
तस्वीर मेरी
बरामदे में जरुर लगाना
बारहवें पर फूल चढ़ाना
फिर बारह महीने तक भूल जाना,
अगले साल
बरसी पर ही
नए फूल लाना
और अगले बारह महीनों के लिए
उन्हें चढ़ाना,
याद जब मेरी आए
तस्वीर पर की
धूल हटाना
बरामदे में मेरी तस्वीर ज़रूर लगाना !
सपने !
सोचा की आप लोग बोरियत महसूस करने लगे होंगे मेरी कमीज, पतलून, जूता और ट्रांजिस्टर से इसलिए कुछ अलग लिखने की कोशिश की है! हर इंसान सपने देखता है, हर सपना पूरा हो ज़रूरी नहीं है, अक्सर कई सपने टूट जाते है और टूटकर बिखर जाते है, पर हम फिर भी बाज नहीं आते सपने देखने से .............
मेरे वो सपने
जिन्हें बंद मुट्ठी में लिए
निकलता था घर से
इस शहर की भीड़ में
फिसल कर हाथों से
कुचले गए पैरों तले,
मेरे उन सपनों को रौंद कर
गुज़र गयी भीड़,
और मैं उन सपनों की
अस्थियाँ बटोर कर
फिर से
घर आ जाता हूँ
और अपनी आँखों को
और सपने ना देखने की
हिदायत देता हूँ,
पर मेरी आँखें
फिर भी और सपने देखने से
बाज़ नहीं आती
फिर से कोई सपना
परों तले कुचलने के लिए
आँखों में तैयार है!
मेरे वो सपने
जिन्हें बंद मुट्ठी में लिए
निकलता था घर से
इस शहर की भीड़ में
फिसल कर हाथों से
कुचले गए पैरों तले,
मेरे उन सपनों को रौंद कर
गुज़र गयी भीड़,
और मैं उन सपनों की
अस्थियाँ बटोर कर
फिर से
घर आ जाता हूँ
और अपनी आँखों को
और सपने ना देखने की
हिदायत देता हूँ,
पर मेरी आँखें
फिर भी और सपने देखने से
बाज़ नहीं आती
फिर से कोई सपना
परों तले कुचलने के लिए
आँखों में तैयार है!
गुरुवार, 22 अप्रैल 2010
मेरा ट्रांजिस्टर !
मेरी कमीज, मेरी पतलून, मेरा जूता के बाद मेरा ट्रांजिस्टर.......शायद आपको पसंद आएगा !
आज फिर से
मेरा ट्रांजिस्टर
याचना सी कर रहा है मुझसे
अपनी मरम्मत के लिए,
एक समय था
जब बहुत ही सुरीली तान में
वो बजता था
और मैं भी
उसके साथ गुनगुनाता था,
पर आज
मरघट सा सन्नाटा है
मेरे घर में
बिना ट्रांजिस्टर के !
आज फिर से
मेरा ट्रांजिस्टर
याचना सी कर रहा है मुझसे
अपनी मरम्मत के लिए,
एक समय था
जब बहुत ही सुरीली तान में
वो बजता था
और मैं भी
उसके साथ गुनगुनाता था,
पर आज
मरघट सा सन्नाटा है
मेरे घर में
बिना ट्रांजिस्टर के !
बुधवार, 21 अप्रैल 2010
मेरा जूता !
मेरे पैर का अंगूठा
अक्सर मेरे
फटे हुए जूते में से
मुह निकाल कर झांकता है
और कहता है...
कम से कम अब तो
रहम करो
इस जूते पर और मुझ पर
जब भी कोई पत्थर देखता हूँ
तो सहम उठता हूँ ,
इतने भी बेरहम मत बनो
किसी से कर्ज ले कर ही
नया जूता तो खरीद लो !
मंगलवार, 20 अप्रैल 2010
मेरी पतलून !
आप भी सोचेंगे की ये क्या कमीज, पतलून, पर लिखने लगा, लेकिन एक समय था जब मेरी आर्थिक स्तिथि बहुत खराब थी और मुझे कपडे वगैरा भी खरीदने के लिए सोचना पड़ता था, लिखने का शौक तो सदा से था सो उस कठिन समय में कमीज, पतलून, जूता, चूल्हा, ट्रांजिस्टर जहाँ भी नज़र जाती कुछ ना कुछ लिख देता था, इस तरह ये एक श्रंखला सी बन गयी वही आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ, आशा है आप मेरी भावनाओं को समझेंगे ! मैं इसे एक श्रंखला के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ !
मेरी पतलून .....
मेरी पतलून
जो कई जगह से फट चुकी है
उसकी उम्र भी
कब की खत्म हो चुकी है,
फिर भी वो बेचारी
दम तोड़ते हुए भी
मेरी नग्नता को
यथासंभव ढक लेती है,
परन्तु मैं
फिर भी नयी पतलून खरीदने को आतुर हूँ !
मेरी पतलून .....
मेरी पतलून
जो कई जगह से फट चुकी है
उसकी उम्र भी
कब की खत्म हो चुकी है,
फिर भी वो बेचारी
दम तोड़ते हुए भी
मेरी नग्नता को
यथासंभव ढक लेती है,
परन्तु मैं
फिर भी नयी पतलून खरीदने को आतुर हूँ !
सोमवार, 19 अप्रैल 2010
मेरी कमीज !
मेरी कमीज
जिसकी जेब
अक्सर खाली रहती है
और मेरी कंगाली पर
हंसती है,
मैं रोज सुबह
उसे पहनता हूँ
रात को पीट पीट कर
धोता हूँ
और निचोड़कर सुखा देता हूँ
शायद उसे
हंसने की सजा देता हूँ !
जिसकी जेब
अक्सर खाली रहती है
और मेरी कंगाली पर
हंसती है,
मैं रोज सुबह
उसे पहनता हूँ
रात को पीट पीट कर
धोता हूँ
और निचोड़कर सुखा देता हूँ
शायद उसे
हंसने की सजा देता हूँ !
फूलदान ! (FLOWER POT)
रविवार, 18 अप्रैल 2010
महानगर का घर !
मेरे घर में
हवा के झोंकों
और
सूर्य कि किरणों का आना
सख्त मना है,
क्योंकि मेरा घर
पूर्णतया वातानुकूलित है,
मेरे घर के ऊपर
ना छत है
ना पैरों तले ज़मीन ,
मैं महानगर की
एक बहुमंजिला इमारत में रहता हूँ !
हवा के झोंकों
और
सूर्य कि किरणों का आना
सख्त मना है,
क्योंकि मेरा घर
पूर्णतया वातानुकूलित है,
मेरे घर के ऊपर
ना छत है
ना पैरों तले ज़मीन ,
मैं महानगर की
एक बहुमंजिला इमारत में रहता हूँ !
शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010
धुंधला चुके चित्र !
मेरा एक बहुत पुराना देहाती मित्र मुझे लगभग २० साल बाद बहुत ही खस्ता हाल में मिला, उसे मुझ से मिलकर बहुत खुशी हुई,
पर ना जाने क्यों मैं उसे देख कर शर्म महसूस करने लगा, बाद में इस पर चिंतन करते हुए कुछ पंक्तियाँ लिखी, प्रस्तुत है ......
माना कि तुम
मेरे पुराने मित्र हो
पर मेरे अन्तःस्थल के
धुंधला चुके चित्र हो,
अब मैं तुम्हारा
वो मित्र नहीं रहा
जिसे तुम जानते थे
पहचानते थे,
अब तो मैं
महानगर में रेंगता
वो कीड़ा हूँ
जो भावनाओं में नहीं बहता !
पर ना जाने क्यों मैं उसे देख कर शर्म महसूस करने लगा, बाद में इस पर चिंतन करते हुए कुछ पंक्तियाँ लिखी, प्रस्तुत है ......
माना कि तुम
मेरे पुराने मित्र हो
पर मेरे अन्तःस्थल के
धुंधला चुके चित्र हो,
अब मैं तुम्हारा
वो मित्र नहीं रहा
जिसे तुम जानते थे
पहचानते थे,
अब तो मैं
महानगर में रेंगता
वो कीड़ा हूँ
जो भावनाओं में नहीं बहता !
बुधवार, 7 अप्रैल 2010
कुछ लोग !
कुछ लोग
जो इंसान कहलाते हैं
उनसे गुज़ारिश है मेरी
कि मुझे इंसानियत का
पाठ पढाएं,
मुझे भी इंसान बनना है!
जो इंसान कहलाते हैं
उनसे गुज़ारिश है मेरी
कि मुझे इंसानियत का
पाठ पढाएं,
मुझे भी इंसान बनना है!
मंगलवार, 6 अप्रैल 2010
यादें !
आज फिर तुम्हारी याद आई
आँखें कुछ नम हुई
और विगत स्मृतियों ने
बहुत रुलाया,
ख्यालों ही ख्यालों में
सोचता हूँ
कि तुमसे जब मुलाकात होगी
तो बहुत सी बातें कहूँगा
कुछ शिकवे कुछ शिकायत करूँगा,
तुम्हारे अंतर कि वेदना को
यूँ बातों ही बातों में मिटा दूंगा
और तुम्हारी राहों में
खुशियाँ बिछा दूंगा,
पर ख्यालों कि ये दुनिया
बड़ी बेरहमी से मुझे
यथार्थ के धरातल पर ले आती है
और ये अहसास कराती है
कि तुम जहाँ जा चुके हो
वहां से कोई लौट कर नहीं आता
सिर्फ यादें ही आती है
और सताती है बार बार !
आँखें कुछ नम हुई
और विगत स्मृतियों ने
बहुत रुलाया,
ख्यालों ही ख्यालों में
सोचता हूँ
कि तुमसे जब मुलाकात होगी
तो बहुत सी बातें कहूँगा
कुछ शिकवे कुछ शिकायत करूँगा,
तुम्हारे अंतर कि वेदना को
यूँ बातों ही बातों में मिटा दूंगा
और तुम्हारी राहों में
खुशियाँ बिछा दूंगा,
पर ख्यालों कि ये दुनिया
बड़ी बेरहमी से मुझे
यथार्थ के धरातल पर ले आती है
और ये अहसास कराती है
कि तुम जहाँ जा चुके हो
वहां से कोई लौट कर नहीं आता
सिर्फ यादें ही आती है
और सताती है बार बार !
रविवार, 4 अप्रैल 2010
माँ !
माँ सपने देखती है
कई बार टूटते हैं
बिखरते हैं सपने
पर माँ कि आदत है सपने देखना,
बिखरे हुए सपनो को समेटना
टूटे हुए सपनो को जोड़ना,
माँ सपने बुनती है
सपनो को ओढ़कर सोती है
छोटे छोटे सपनो में
सिमटी है उसकी दुनिया,
मोम का ह्रदय
रखती है वो सीने में
ज़रा सी आंच में
पिघलने लगता है जो,
जब मैं छोटा था
मेरे बेशक्ल ज़ज्बात
और टूटे फूटे अल्फाज़
सिर्फ वो ही समझ पाती थी,
मेरी हर तकलीफ में
आंसू बहाती थी
डरता था जब मैं
मुझे आँचल में छुपाती थी,
आज भी जब
सख्त रास्तों से गुज़रता हूँ
तो माँ को याद करता हूँ
और फिर
सख्त रास्ते भी
मखमली कालीन बन जाते हैं,
ऐसी ही होती है हर माँ!
कई बार टूटते हैं
बिखरते हैं सपने
पर माँ कि आदत है सपने देखना,
बिखरे हुए सपनो को समेटना
टूटे हुए सपनो को जोड़ना,
माँ सपने बुनती है
सपनो को ओढ़कर सोती है
छोटे छोटे सपनो में
सिमटी है उसकी दुनिया,
मोम का ह्रदय
रखती है वो सीने में
ज़रा सी आंच में
पिघलने लगता है जो,
जब मैं छोटा था
मेरे बेशक्ल ज़ज्बात
और टूटे फूटे अल्फाज़
सिर्फ वो ही समझ पाती थी,
मेरी हर तकलीफ में
आंसू बहाती थी
डरता था जब मैं
मुझे आँचल में छुपाती थी,
आज भी जब
सख्त रास्तों से गुज़रता हूँ
तो माँ को याद करता हूँ
और फिर
सख्त रास्ते भी
मखमली कालीन बन जाते हैं,
ऐसी ही होती है हर माँ!
शनिवार, 3 अप्रैल 2010
क्षणिकाएँ !
(१)
व्यापारी हूँ
खरीदता हूँ बेचता हूँ
ईमान धरम जो मिल जाए,
कौड़ियों के दाम मिलता है ये
बिकता है अच्छे भाव!
(२)
उनके पसीने कि कमाई
हम खाते हैं
वो बहाते हैं
हम पी जाते हैं!
(३)
फूल ने कहा
मत तोड़ो मुझे
महका दूंगा चमन,
निर्मम हाथों ने तरस न खाया
तोड़कर पत्थरों पे चढ़ाया!
(४)
उलझी हुई है ज़िन्दगी
बस जिए जा रहा हूँ
हर रात के बाद
सुबह का इंतजार किये जा रहा हूँ!
व्यापारी हूँ
खरीदता हूँ बेचता हूँ
ईमान धरम जो मिल जाए,
कौड़ियों के दाम मिलता है ये
बिकता है अच्छे भाव!
(२)
उनके पसीने कि कमाई
हम खाते हैं
वो बहाते हैं
हम पी जाते हैं!
(३)
फूल ने कहा
मत तोड़ो मुझे
महका दूंगा चमन,
निर्मम हाथों ने तरस न खाया
तोड़कर पत्थरों पे चढ़ाया!
(४)
उलझी हुई है ज़िन्दगी
बस जिए जा रहा हूँ
हर रात के बाद
सुबह का इंतजार किये जा रहा हूँ!
गुरुवार, 1 अप्रैल 2010
आज सन्डे !
मेरे एक मित्र देबाशीष बेनर्जी जो कि बेलूर मठ के हैं और बहुत अच्छे चित्रकार भी हैं, पेशे से पुलिस के लिए काम करते हैं, उनकी एक बंगाली में लिखी कविता का अनुवाद उनकी अनुमति से पेश कर रहा हूँ !
आज सन्डे !
हर रोज रफ़्तार से
चलती है ज़िन्दगी,
आज छुट्टी का ये दिन
बहुत आलस में बिताना है
आफिस कि आज
कोई परेशानी नहीं,
कहीं बम फूटे या
दौड़े पुलिस
हर रोज़ कोई करे
किसी के खिलाफ साजिश,
जनता को नेता जी ने
किया हाफिज़
और ज़नता
लोडशेडिंग में बद्दुआ देते हुए
ढूंढे माचिश,
किचन में कबाब तंदूरी या बिरयानी
कहीं नहीं जाना आज
दीमापुर, हाफलांग या मरियानी,
घर में रहकर आज
दिखाऊ कप्तानी
बीवी से करूँ आज
छेड़ छाड और शैतानी,
दिल में आज लहरा चुके
प्यार के झंडे
शराब के साथ खाऊ
अदरक, चिप्स और अंडे,
बाहर में बहुत बारिश, हवा और ठण्ड
कोई मर गया! छोड़ यार
आज सन्डे !
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NILESH MATHUR