शुक्रवार, 26 मार्च 2010

शब्द !

कभी कभी कलम
लाचार सी शब्दों को निहारती है
और शब्द
निष्ठुर बन जाते हैं,

और कभी कभी भावनाएं
शब्दों का रूप धर बहती है
तब कलम
पतवार बन जाती है
शब्दों को पार लगाती है ,

और फिर भीगे हुए शब्द
वस्त्र बदल कर
सज संवर कर
कागज़ पर उतर आते हैं
और रचना बन जाते हैं!

रिश्ते !

हर रिश्ते को 
कोई नाम न दो 
कुछ बेनाम रिश्ते भी 
जीने का सबब बन जाते हैं,


कुछ रिश्ते निभाने पड़ते हैं 
न चाहते हुए भी 
और कुछ लोग बिन रिश्ते के भी 
दिल के करीब होते हैं,


रिश्तों के लिए तो जीते हैं सभी
पर कुछ लोग 
किसी गैर के लिए 
ज़िन्दगी बिता देते हैं 
और खुद को मिटा देते हैं, 


अपने ज़ख्म को 
सहलाता है हर शख्स 
पर कुछ लोग 
औरों के ज़ख्म सीने पे लिए फिरते हैं, 


बहुत भटकाव हैं 
रिश्तों कि राह में
कुछ लोग ज़िन्दगी बिता देते हैं 
किसी कि चाह में !

बुधवार, 24 मार्च 2010

ज़िन्दगी कुछ इस तरह

जिंदगी यूँ ही गुज़र जाती है 
बातों ही बातों में 
फिर क्यों न हम 
हर पल को जी भर के जियें,


खुशबू को 
घर के इक कोने में कैद करें 
और रंगों को बिखेर दें 
बदरंग सी राहों पर, 


अपने चेहरे से 
विषाद कि लकीरों को मिटा कर मुस्कुराएँ 
और गमगीन चेहरों को भी 
थोड़ी सी मुस्कुराहट बाँटें,


किसी के आंसुओं को 
चुरा कर उसकी पलकों से 
सराबोर कर दें उन्हें 
स्नेह कि वर्षा में,


अपने अरमानों की पतंग को 
सपनो कि डोर में पिरोकर
 मुक्त आकाश में उडाएं 
या फिर सपनों को 
पलकों में सजा लें,


रात में छत पर लेटकर 
तारों को देखें 
या फिर चांदनी में नहा कर 
अपने ह्रदय के वस्त्र बदलें 
और उत्सव मनाएँ, 


आओ हम खुशियों को 
जीवन में आमंत्रित करें 
और ज़िन्दगी को जी भर के जियें!

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

बचपन !

हर एक इंसान के जीवन में बचपन कि यादें रहती हैं, हर बच्चा निष्पाप और निष्कपट होता है, भौतिक जीवन और अपनी लालसाओं के जाल में उलझ कर हम नैतिक अनैतिक में भेद करना भूल जाते हैं, कभी कभी मन होता है फिर से बचपन में लौट जाने का!


आओ लौट चलें बचपन में
फिर से निष्कपट हो जाएँ,
कागज कि कश्ती बनाएं
पानी में बहाएँ,


फिर से देखें वो ख्वाब 
जो कुछ अटपटे से थे
जिनमे पिता जी कि नसीहत 
और माँ के सपने थे,


आओ लौट चलें बचपन में 
फिर से बस्ता उठाएं 
और स्कूल को जाएँ
मज़हब को भूलकर
ईद और दिवाली मनाएँ
रोज सुबह वन्दे मातरम गाएँ
और सोई हुई देशभक्ति को जगाएँ,


आओ लौट चलें बचपन में
फिर से मुस्कुराएँ
छोटी छोटी खुशियों पर 
उत्सव मनाएँ
भुला कर हर गम
फिर से खिलखिलाएं,


आओ लौट चलें बचपन में
फिर से निष्कपट हो जाएँ!



सोमवार, 15 मार्च 2010

क्षणिकाएँ

(१) 
उधर मत देना मुझे 
खुशियाँ और सुख
मैं पहले ही 
बहुत कर्जदार हूँ !
(२)
गंगा में डुबकी लगायी 
पापों से मुक्ति पायी,
फिर नए सिरे से 
शुरू होंगे अनवरत पाप!
(३)
पिता जी ने कहा था
बेटा, सत्य के मार्ग पर चलना,
मैं चला
परन्तु फिसलन बहुत थी वहां
घुटने छिल गए!
(४)
मेरी हथेली
जिस पर सरसों नहीं उगती
वो पाना चाहती है
पल में सब कुछ!
(५
)कृतज्ञ रहूँगा मैं तुम्हारा
तुम अगर जीना सिखला दो
क्षणभंगुर इस जीवन का
अर्थ मुझे तुम बतला दो!


NILESH MATHUR

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