दीपक 'मशाल' जी के सुझाव पर अपनी इस रचना में कुछ पंक्तियाँ और जोड़ कर प्रस्तुत कर रहा हूँ.....
कोई बचा लो मुझको मर रहा हूँ मैं
एक बार में मरता तो अलग बात थी
किस्तों में मर रहा हूँ मैं,
पहले ज़मीर मरा
फिर इंसानियत
अब तिल तिल कर
मर रही है मेरी संवेदनाएं,
कहते हैं की
जब संवेदनाएं मरती हैं
तो हैवानियत का
जन्म होता है,
और हैवान अक्सर
ज़मीर और इंसानियत जैसी
वाहियात चीजो में
यकिन नहीं करते
और वो संवेदनाओं से परे होते हैं,
यही तो फर्क होता है
इंसान और हैवान में,
इसीलिए तो कहता हूँ कि
कोई बचा लो मुझको
मर रहा हूँ मैं
इंसान से हैवान बन रहा हूँ मैं!
अगर तुम
मुझे बचा नहीं सकते
तो फिर मुझे दोष भी मत देना
क्योंकि मैं खुद को
मरते हुए
और इंसान से हैवान बनते हुए
देख रहा हूँ,
लेकिन मैं मरना नहीं चाहता,
इसी लिए तो कहता हूँ कि
कोई बचा लो मुझको
मर रहा हूँ मैं
इंसान से हैवान
बन रहा हूँ मैं!