हे नारी
क्या समझी है तुमने
एक पुरुष की व्यथा
एक निर्धारित
मानसिकता से परे
मानसिकता से परे
उसका कोमल मन,
सच कहना
क्या देखा है तुमने
पसीने से लथपथ
थककर चूर
हँसते मुस्कुराते हुए
रिश्तों की भारी पोटली
पीठ पर लादे पुरुष,
सच कहना
क्या देखा है तुमने
तपते रेगिस्तान में
नंगे पैर चलता पुरुष
या अभिमन्यु की तरह
चक्रव्यूह में फंसा पुरुष ,
सच कहना
क्या महसूस किया है तुमने
कि पुरुष
सिर्फ बिस्तर पर ही नहीं
सिर्फ बिस्तर पर ही नहीं
अपने अंतर की गहराइयों से भी
प्रेम करता है तुम्हे ,
सच कहना
क्या कभी देखा है तुमने
इस पत्थर दिल पुरुष को
पिघल कर बहते हुए
या ओस की बूंदें बन
पत्तों पर लुढ़कते हुए,
सच कहना
क्या तुम्हारे रूठने पर
नहीं मनाता पुरुष
या तुम्हारी उलझी हुई लटों को
नहीं सुलझाता पुरुष,
या तुम अब भी कहती हो
कि अत्याचारी है पुरुष!