शनिवार, 28 मई 2011

हे नारी, तुम सच कहना

हे नारी  
तुम सच कहना 
क्या समझी है तुमने 
एक पुरुष की व्यथा
एक निर्धारित 
मानसिकता से परे 
उसका कोमल मन,


सच कहना 
क्या देखा है तुमने   
पसीने से लथपथ 
थककर चूर 
हँसते मुस्कुराते हुए 
रिश्तों की भारी पोटली 
पीठ पर लादे पुरुष,


सच कहना 
क्या देखा है तुमने
तपते रेगिस्तान में 
नंगे पैर चलता पुरुष 
या अभिमन्यु की तरह
चक्रव्यूह में फंसा पुरुष ,


सच कहना 
क्या महसूस किया है तुमने 
कि पुरुष 
सिर्फ बिस्तर पर ही नहीं
अपने अंतर की गहराइयों से भी
प्रेम करता है तुम्हे ,


सच कहना 
क्या कभी देखा है तुमने
इस पत्थर दिल पुरुष को
पिघल कर बहते हुए
या ओस की बूंदें बन 
पत्तों पर लुढ़कते हुए,  


सच कहना
क्या तुम्हारे रूठने पर 
नहीं मनाता पुरुष
या तुम्हारी उलझी हुई लटों को 
नहीं सुलझाता पुरुष,


या तुम अब भी कहती हो 
कि अत्याचारी है पुरुष!

रविवार, 22 मई 2011

तुम हो सागर तट

तुम 
सागर तट हो
मैं हूँ इक लहर,
मेरी 
नियति है
तुम्हारी बाहों में समाना
आ कर तुम में
मिल जाना,
मैं 
इक लहर
समर्पण करती हूँ
अपना अस्तित्व तुमको
तुम ही दोगे
मेरे अस्तित्व को 
पहचान,
मैं तो यूँ ही 
मिटाती रहूंगी
अपना अस्तित्व
तुम्हारी बाहों में
सदियों तक!

रविवार, 8 मई 2011

माँ की आदत है सपने देखना


माँ सपने देखती है
बार बार टूटते हैं 
बिखरते हैं सपने
पर माँ की आदत है सपने देखना,

बिखरे हुए सपनो को समेटना 
टूटे हुए सपनो को जोड़ना,

माँ सपने बुनती है
सपनो को ओढ़कर सोती है

नौ महीने तक 
पलता है एक सपना 
उसकी कोख में

और वो
उस सपने को पलकों में लिए 
तय करती है 
लंबा और कठिन सफ़र 

एक दिन जब 
वो सपना 
बीसवीं मंजिल पर पहुच कर 
धकेल देता है माँ को 

तब भी माँ 
सपने देखना नहीं छोडती
क्योंकि माँ की आदत है
सपने देखना!

शुक्रवार, 6 मई 2011

पिछड़ा हुआ गाँव

वो कहते हैं की
तुम्हारा गाँव 
आज भी पिछड़ा है 
मैं बोला 
सच कहा तुमने  


वहाँ आज भी लोग 
सिर्फ सच बोलते हैं,


वहाँ पीपल की 
पूजा होती है
ब्राह्मणों को 
भोजन कराते हैं,

गोबर की थेपड़ीयों पर
वो लोग रोटी बनाते हैं
और जमीन पर बैठकर
खाते हैं,

अपनों से बड़ों के 
वहां पाँव छूते हैं
आज भी वहां लोग
रिश्तों में उलझे हैं,

डैडी को बाबु जी
और मम्मी को माँ कहते हैं 
और तो और 
पड़ोस के बुड्ढे को
काका कहकर बुलाते हैं लोग, 

वहां के गंवार लोग
अब भी 
दूसरों के दुःख में 
आंसू बहाते हैं
और अपना 
तन मन धन 
व्यर्थ ही लुटा देते हैं, 

पिछड़ी हुई औरतें हैं वहां
जो पूरा तन ढकती हैं 
और पति को 
परमेश्वर कहती हैं,


वहां आज भी लोग
छत पर लेटकर
तारों को
देखते हैं ,


सौंधी सौंधी मिट्टी है
गोबर लिपे मकान
और फूट चुके आँगन में
तुलसी का है थान,


सच कहा भाई 
बहुत पिछड़ा है 
आज भी 
हमारा गाँव!
  

जुर्म

मेरी पलकों ने
आंसुओं को
कैद कर लिया है
शायद बेतरह बहने की
सज़ा दी है,
मेरे आंसुओं ने भी
अपना जुर्म 
कुबूल कर लिया है
बेतरह बहने के 
जुर्म में 
सजा ए मौत 
मांगी है! 

रविवार, 1 मई 2011

घरौंदा

एक चिड़िया ने 
आज कई दिनों बाद
मेरे घर के 
रोशनदान पर 
तिनका तिनका जोड़
घरौंदा बनाया है,
और इत्तेफाक से 
आज ही मुझे
अपने घर की 
सफाई का ख्याल आया है!


NILESH MATHUR

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