बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

ये क्या हो रहा है

सरे बाज़ार 
बिकते हैं इंसान
सबके अलग अलग हैं दाम,
किसी का 
ज़मीर बिक चुका है
तो किसी ने 
इंसानियत बेच खायी,
आबरू लुट रही है 
किसी की
नपुंसक हो गया है 
समाज,
आज तो कौरव 
पांडवों से जीत रहे हैं
और कृष्ण भी 
चुपचाप कोने में खड़े हैं,
अंधों के शहर में 
कुछ लोग
आईने बेच रहे हैं
तो कुछ लोग 
फिरंगी बन
देश को लूट रहे हैं,
खेतों को मिटा कर 
कुछ लोग
महल बना रहे हैं
और हमें 
चिमनिओं का धुँआ 
पिला रहे हैं,
किसी के पास 
तन ढकने को
कपडे नहीं है
तो कहीं  
शर्मोहया को बेचकर
तन दिखाने की 
होड़ लगी है,
कोई अपना ही 
खंजर भौक रहा है
अपनों की पीठ में
तो किसी को 
खून चूसने की
लत लगी है,
माँ से कहानियाँ अब
कोई सुनता नहीं
आज बच्चे भी 
समय से पहले
जवान हो रहे हैं,
बुजुर्गों के लिए 
वृद्धाश्रम बन गए हैं
अब किसी को 
संस्कारों की ज़रूरत नहीं,
रिश्तों की जड़े 
हिल गयी है
मानवता की 
चिता जल रही है,
कृष्ण आप 
चुपचाप कोने में क्यों खड़े हैं!

15 टिप्‍पणियां:

  1. शायद कृष्ण भी इस कलियुग में बेअसर है। इंसान के सभी पक्षों का निर्ममता पुर्वक विवेचन किया है आपने।

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  2. राहत है कि कृष्‍ण कोने में सही, रणछोड़ तो नहीं.

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  3. कृष्ण इस इंतज़ारमें खड़े हैं कि जब घड़ा भर जाएगा तब वो एंट्री लेंगे!!

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  4. अंधों के शहर में, कुछ लोग आईने बेच रहे हैं !!!
    संस्कारों की ज़रूरत नहीं,रिश्तों की जड़े हिल गयी है
    मानवता की चिता जल रही है,
    kyaa baat kahi hai.

    iss samaj ko tumne bahut geharayi se dekha hai.
    App ne jo kuch yeha pe likha hai..woh 100% sach hai.
    aaj ka ye samaj waisa hee hai jaise aapne apni kavita dwara express kiya hai

    bahoot hi accha varnan kiya hai !!!!

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  5. कृष्ण अब हमें अपनी गीता पढ़ाकर खुद अन्याय का मुकाबला करने को कह रह हैं, हमें भी तो अपनी तरह से अर्जुन बनना है !

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  6. एक बेहद सशक्त और सोचने को विवश करती रचना के लिये बधाई।

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  7. सच कहते है आज के दौर में

    रिश्तों की जड़े
    हिल गयी है

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  8. यही तस्वीर शेष रह गयी है इस समाज और मानव की. उसमें कहाँ से सुधारें और कहाँ से संभाले कुछ अब होने वाला नहीं है. स्थिति बद से बदतर हो रही हैं.

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  9. कृष्ण जब चुचाप है तब इन्सान तो गूँगा हो चूका | सच्चाई को वयां करती हुई रचना , बधाई

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  10. कृष्ण चुचाप खड़े हैं? नही तुमने सूना ही नही,उन्होंने कहा कब तक लडूं तुम्हारे लिए?और क्यों लडूं तुम्हारे लिए? मैंने तुम्हे दिमाग भी दिया,दिल भी और हाथ भी तुम उन्हें काम ना लो तो ......क्यों आऊँ मैं तुम्हारे और तुम्हारे इस समाज के बीच? क्या कभी तुमने आवाज उठाई? क्या कभी तुमने विरोध किया उसका जो तुम्हे कष्टदायक लगता है? बस शिकायते करते हो.इस बार सारी शक्ति तुम्हे,तुम सबको दे दी है मैंने,देखूं तो कौन उठता है? फिर.....मैं उसके साथ हूँ.

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NILESH MATHUR

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