जागो उठो
देखो सवेरा हो गया है
पंछी गा रहे हैं
फूल खिलने लगे हैं,
अँधेरी रात बीत गयी
अब रौशनी में नहा लो
और अंतर के मैल को धो कर
स्वच्छ निर्मल हो जाओ,
अब तैयार हो जाओ
तुम्हारा ही इंतज़ार है
नियति तुम्हारी राह देख रही है
तुम्हे अपनी मंज़िल पर पहुंचना है,
अब समय आ गया है
ये सोचने का
कि तुम क्यों आये थे
और क्या करना है,
बहुत अनमोल है ये जीवन
द्वार पर कोई दस्तक दे रहा है
और तुम चादर ओढ़ कर सोये हो
उठो अब भी समय है,
उन दीवारों को गिरा दो
जिनमे तुम कैद हो
हर उस ज़ंज़ीर को तोड़ दो
जिसमे जकड़े हुए हो,
उठ कर बाहर निकलो
देखो कुछ भव्य सा
तुम्हारी सोच से परे कुछ अद्भुत
तुम्हे दिखाई देगा,
तुम दुखों के सागर में
या फिर क्षणिक आनंद में उलझे हो
वहाँ सर्वत्र सुख ही सुख है
उस भव्यता से
तुम अचंभित रह जाओगे,
अब भी समय है
उठ कर द्वार खोलो और निकल पड़ो
अपने गंतव्य की ओर
जहां जाने के लिए तुम आये
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 20 जुलाई 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंकितनी सकारात्मकता है इन शब्दों में .. प्रेरित करती अभिव्यक्ति बहुत ही अच्छी लगी .. आभार सहित शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंसकारात्मकता भरी बेहद खूबसूरत भावाभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंसुंदर शाश्वत।
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