लेकिन शब्दों को
सहेज कर रखता हूँ
उन्हें तराश कर
एक नयी शक्ल देने का
प्रयास करता हूँ ,
मेरा व्यवसाय भी सहायक है मेरा
कभी कभी हथोड़े की आवाज
और मजदूर का पसीना भी शब्द देते हैं मुझे
इंसान का पिघलना तो नहीं लेकिन
लोहे का गलना अक्सर देखता हूँ,
ट्रक के घूमते पहिये में
जीवन की गति देखता हूँ
और पंचर टायर में
जीवन का यथार्थ नजर आता है,
टूटे हुए पुर्जों को देखकर
समझ में आता है कि
रिश्तों की तरह
इन्हें फिर से जोड़ा तो जा सकता है
लेकिन वो मजबूती फिर नहीं रहती,
रेल की पुरानी पटरियां
बताती है मुझे
कि सहना क्या होता है
वे घिस तो जाती हैं
लेकिन टूटना उन्हें नहीं आता,
छेनी पर हथौड़े की चोट को
और हथौड़ा चलाते हाथों को
बहुत नजदीक से देखा है मैंने
मैंने देखी है उन हाथों की मजबूती ,
मैंने देखा है
उन मजबूत कन्धों को
जो उठाते हैं खुद से भी ज्यादा भार
लेकिन झुकते नहीं,
सचमुच मैं कबाड़ी हूँ
हर पुरानी चीज की
कद्र जानता हूँ
पुराने रिश्तों को निभाता हूँ
पुराने दोस्तो को पहचानता हूँ,
हाँ मैं कबाड़ी हूँ
सब कुछ खरीद
और बेच सकता हूँ
कद्र जानता हूँ
पुराने रिश्तों को निभाता हूँ
पुराने दोस्तो को पहचानता हूँ,
हाँ मैं कबाड़ी हूँ
सब कुछ खरीद
और बेच सकता हूँ
सिर्फ ईमान को छोड़ कर ।
Truck ke ghumte pahiye me jeewan ki gati,aur puncture tyre me jeewan ka yatharth,
जवाब देंहटाएंPAR AAPNE TO HAR JAGAH JEEWAN KE HAR PAHLOO KO DEKH LIYA
ACHHI RACHNA SARTHAK PRASTUTI
और बेच सकता हूँ
जवाब देंहटाएंसिर्फ ईमान को छोड़ कर ।
यही सबसे कीमती है ....
शुभकामनायें आपको, नीलेश !
नये प्रतीकों से रचित भावपूर्ण रचना आभार .
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंमाफी चाहता हूँ गलती से आपका कमेंट डिलीट हो गया है।
हटाएंक्या शानदार कबाड़ी की कविता है। कबाड़ा का तो पता नहीं दिल्ली के मायापुरी के लोहा मंडी में लोहे पर पड़ते हथोंडों और हथोंड़ों पर गिरने वाली पसीने की बूंदे याद आ गईं....पिघलता लोहा और न पिघलते इंसान...(इंसान कहना मजबूरी है) घुमता ट्रक का पहिया औऱ गतिमान समय का चक्र सब एकाकार हो गए हैं.....वाह आवारा बिरादर
जवाब देंहटाएंपसीने से लथपथ मजदूर ईमान नहीं बेचता
जवाब देंहटाएंमाफी चाहता हूँ गलती से सुषमा जी का कमेंट डिलीट हो गया है।
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