शनिवार, 21 जनवरी 2012

वनवास



ध्यान, साधना, सत्संग 
से कोसों दूर
कंक्रीट के जंगल में
सांसारिक वासनाओं 
और अहंकार तले
आध्यात्म रहित वनवास
भोग रहा हूँ इन दिनों,
मैं फिर से लौट कर आऊँगा 
जानता हूँ की तुम मुझे 
माफ करोगे 
और सहर्ष स्वीकार भी करोगे। 











20 टिप्‍पणियां:

  1. प्रेरक और सुंदर अभिव्यक्ति..

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  2. alg tarh ki rachna....bahut hi acha likha aap ne....bdhai sweekaren....

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  3. बहुत उम्दा


    ये प्रकति अपने आने वालो का हर पल इंतज़ार करती हैं ....

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  4. आशा ही जीवन है ...
    शुभकामनायें भैया !

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  5. तथास्तु.
    आपकी इच्छा जरूर पूर्ण होगी निलेश जी.
    सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
    मेरे ब्लॉग पर आईयेगा जी.

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  6. बहुत सुंदर प्रस्तुति । मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

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  7. ध्यान की याद बनी है तो भीतर ध्यान है ही...शुभकामनायें!

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  8. 'वह' कहाँ किसी को अस्वीकार करता है...
    सुन्दर अभिव्यक्ति...

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  9. सच्चे को कौन अस्वीकर करता है! बहुत अलग सी मगर सुंदर लघु कविता।

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  10. मैं फिर से लौट कर आऊँगा
    बहुत सुन्दर

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  11. बहुत सुंदर रचना, बेहतरीन पोस्ट....अच्छी लगी

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  12. हाँ कहते हैं कि वह बड़ा ही दयालु है.. ज़रूर वापस अपनी क्षत्र-छाया में ले लेगा सभी वनवासियों को..

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  13. इस कविता के माध्यम से कितनी ही सरलता और सौम्यता के साथ जो आपने सन्देश दिया है, वो बहुत ही प्रशंशनीय है...
    वटवृक्ष के लिंक से पहली बार आना हुआ.. बहुत धन्यवाद..

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NILESH MATHUR

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