क्या सोचा है कभी
उन हाथों के बारे में
जिन हाथों ने
बोए थे बीज, उगाई थी फसल,
क्या सोचा है कभी उनके बारे में
जिन्होने बहाया था पसीना
और बनाए थे वो झरोखे
जहाँ से आती है पुरसुकून हवा और धूप,
कभी फुर्सत मिले
तो झरोखा खोल कर देखना
इसे बनाने वाला
कहीं खुले आसमान तले सोता दिखेगा,
और शाम को
लज़ीज़ पकवान खा कर
जब टहलने जाओगे
तो दिखेगा कहीं ना कहीं
मिट्टी से सना वो शख्स भी
जिसने बोए थे बीज और उगाई थी फसल,
फर्क सिर्फ ये है
कि उसे मेहनत कर के भी
भर पेट ना मिला
और तुम इतना खा लेते हो
कि हजम करने के लिए भी टहलना पड़ता है,
कोई बात नहीं
अगर जल्दी उठ सको
तो सुबह उठ कर देखना
उस चेहरे को
जो हर सुबह ढोता है तुम्हारा मैल,
शायद जाग जाए
तुम्हारे अंदर सोया हुआ इंसान
और देख सके इन तिरस्कृत चेहरों को
जिनके साये तले हम ज़िंदा हैं
हँसते खेलते हुए खाते पीते हुए
और जाम हाथ मे लिए
संगीत सुनते हुए।
अक्सर सोया हुआ इन्सान जब तक जगता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है...
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