गुरुवार, 16 सितंबर 2010

दर्द

बहुत गहराई से 
महसूस किया है 
मैंने दर्द को इन दिनों,

बहुत समय बाद 
खुलकर रोने का मौका 
मिला है इन दिनों,

कोई सह रहा है दुःख
किसी के लिए
कोई ढाए जा रहा है सितम 
किसी पर इन दिनों,

इस जिस्म से
रूह को जुदा कर सकूँ   
इतना साहस भी
नहीं बचा है मुझमे इन दिनों,

जिन्हें अपना समझता रहा 
उम्र भर 
वही कत्ल करने पर आमाद हैं मेरा 
इन दिनों,

किससे कहूँ 
हाले-दिल अपना  
मेरा खुदा भी मुझसे 
नाराज है शायद इन दिनों !



14 टिप्‍पणियां:

  1. किससे कहूँ
    हाले-दिल अपना
    मेरा खुदा भी मुझसे
    नाराज है शायद इन दिनों !


    -शानदार.बहुत उम्दा!

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  2. हम तो न हंस पातें, न रो पातें है ठीक से,
    बस अरमानों की भरमार है इन दिनों ..

    सुन्दर प्रस्तुति ..

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  3. किससे कहूँ
    हाले-दिल अपना
    मेरा खुदा भी मुझसे
    नाराज है शायद इन दिनों ...dard gahara hai...badhiya post.

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  4. कहाँ रहते हैं आज कल
    इन दिनों ?

    एहसासों को खूबसूरती से लिखा है ..

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  5. अद्भुत रचना है ..............अति सुन्दर

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  6. दर्द के पंक से ही खुशी का कमल खिलता है, और बढ़ जाने दें दर्द को इन दिनों!

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  7. अक्सर ऐसा होता है। लेकिन ये दर्द ही तो हमारी निधि हैं, हमारी ताकत हैं । ये ही तो हमें जीवन संघर्ष करना सिखाते हैं ।

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  8. किससे कहूँ
    हाले-दिल अपना
    मेरा खुदा भी मुझसे
    नाराज है शायद इन दिनों !

    Sach aaj Insaan ke paas kisi ka haal poochhne ka wakt hi kahaa........
    Bahut sunder rachna

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  9. एक दो ज़ख्म नहीं सारा बदन है छलनी
    दर्द बेचारा परेशां है, कहाँ से उठे

    भावनाएं ही मानवता की बुनियाद हैं. आपकी सुन्दर अभिव्यक्ति है.

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  10. दर्द की मार्मिक अभिव्यक्ति ....मगर यहीं तो आपके धैर्य की परीक्षा है नीलेश ! हार्दिक शुभकामनायें !

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NILESH MATHUR

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