शनिवार, 18 जनवरी 2014

मैं एक आम आदमी




मैं एक आम आदमी
अब भी नहीं पहुंची है
परिवर्तन की लहर
मेरे जीवन मे,
सुबह के इंतज़ार मे
गुजरती है हर रात
हर सुबह फिर से ले आती है
अनगिनत चिंताओं की सौगात,
डरा सहमा सा
गुजारता हूँ दिन किसी तरह
छुपता हूँ मकान मालिक से
और सुनता हूँ ताने बीवी के,
हर सुबह निकलता हूँ घर से
बच्चों की फीस और
रासन की चिंता लिए
और दिन ढले फिर से
खाली हाथ लौट आता हूँ,
जीने की जद्दोजहद मे
और रोज़मर्रा की जरूरतों मे उलझा
मैं एक आम आदमी 
बिता देता हूँ
आँखों ही आँखों मे सारी रात,
इस आस मे
कि कल तो होगी
एक नयी सुबह  
जब मैं बच्चों को
बाज़ार ले कर जाऊंगा,
और बीवी को
एक नयी साड़ी दिलवाऊंगा,
एक नयी सुबह के इंतज़ार मे
गुजरती है हर रात मेरी


मैं हूँ एक आम आदमी। 

10 टिप्‍पणियां:

  1. आम आदमी की तरह ही गुजरे जिंदगी
    क्योंकि इसीमें है जिंदगी

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  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  3. आम आदमी के चरित्र को चित्रण करने में सफल रचना |

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  4. सुन्दर भावाभिव्यक्ति...सच्ची कविता वही है जिसमें आम आदमी की पीड़ा अभिव्यक्त होती है.
    http://himkarshyam.blogspot.in

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  5. आम आदमी का खाका खींच दिया आपने ...
    भावपूर्ण ....

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  6. हर आम आदमी की सोच को बहुत अच्छे अंदाज़ में लिखा है

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