रविवार, 27 मार्च 2011

परी


आसमान से उतरी
परी थी वो 
न जाने कितने 
ख्वाब थे पलकों में,


चकित थी वो 
ठहरे हुए पानी में
अपने सौंदर्य को देख ,


छूने की कोशिस में
बिखर गया 
उसका प्रतिबिम्ब,


पलकों से 
दो बूंद आंसू भी 
गिरे झील में 
लेकिन 
उन आंसुओं का
कोई वजूद न था,


क्योंकि 
ये झील तो
ना जाने कितने 
आँसुओं से
मिलकर बनी है,


न जाने कितनी परियाँ
उतरती रही हैं 
आसमान से 
निरंतर..........

और इसी 
झील के किनारे
बहाती रही है आँसू  
सदियों से...............

17 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (28-3-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  2. खुबसुरत नज्म। बेहतरीन एहसास। आभार।

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  3. खूबसूरत अभिव्यक्ति के लिए बधाई नीलेश !!

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  4. .

    छूने की कोशिस में
    बिखर गया
    उसका प्रतिबिम्ब...

    खूबसूरत अभिव्यक्ति

    .

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  5. पढ़कर लगा कि हर सुंदरता प्रतिबिम्ब की तरह ही तो है छूने की कोशिश में खो जाती है ! बहुत सुंदर कविता !

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  6. बेहतरीन एहसास........खूबसूरत अभिव्यक्ति

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  7. कुछ लोग जीते जी इतिहास रच जाते हैं कुछ लोग मर कर इतिहास बनाते हैं और कुछ लोग जीते जी मार दिये जाते हैं फिर इतिहास खुद उनसे बनता हैं बहुत मार्मिक रचना..बहुत सुन्दर...नवरात्रा की आप को शुभकामनायें!

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  8. वाह खूबसूरत कविता ....अहसास ही अहसास :)))

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