शनिवार, 24 जुलाई 2010

वो देते रहे दर्द, हम सहते रहे

कुछ क्षणिकाएँ............

(१)

मैं ओस की बूंदें बन
पत्तों पर लुढ़कता रहा
और वो 
भंवरा बन फूलों पर
मंडराते रहे!


(२)

मैं परवाना बन
शमा पर मंडराता रहा
और वो
लौ बनकर
मुझे जलाते रहे!


(३)

उनके आंसुओं को हमने
ज़मी ना छूने दी कभी 
और उन्होंने
हमारे ज़ख्म की
मरहम तक ना की!


(४)

उन्होंने कभी 
नज़रें उठाकर ना देखा हमें 
और हम 
बंद आँखों से भी
उनका दीदार करते रहे!


(५)

वो देते रहे दर्द
हम सहते रहे
उनकी बेवफाई को भी
हम वफ़ा कहते रहे!


(६)

हम उनकी
मासूमियत के कायल थे
पर वो
बेरहमी की मूरत निकले!


(७)

उन्होंने रिश्तों को 
कभी अहमियत ना दी
और हमने
रिश्तों के सहारे
ज़िन्दगी गुज़ार दी!

16 टिप्‍पणियां:

  1. उनके आंसुओं को हमने
    ज़मी ना छूने दी कभी
    और उन्होंने
    हमारे ज़ख्म की
    मरहम तक ना की! सुंदर अभिव्यक्ति ,शुभकामनायें

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  2. भगवान करे उस तक आपका ई संदेस पहुँचे!!
    .
    .
    http://samvedanakeswar.blogspot.com/2010/07/blog-post_23.html
    यहाँ भी जाकर देखिए...आपका चर्चा किया है हमने!!

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  3. बहुत खूब .जाने क्या क्या कह डाला इन चंद पंक्तियों में

    "माफ़ी"--बहुत दिनों से आपकी पोस्ट न पढ पाने के लिए ...

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  4. उनके आंसुओं को हमने
    ज़मी ना छूने दी कभी
    और उन्होंने
    हमारे ज़ख्म की
    मरहम तक ना की..
    ...खुबसूरत भाव

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  5. बहुत गहरी चोट खाई है दिवाने ने
    कोई समझा दे इन्हें इस दुनिया का दस्तूर
    प्रेम को पागलपन और सादगी को पिछड़ापन समझा जाता है यहाँ ।

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  6. मैं ओस की बूंदें बन
    पत्तों पर लुढ़कता रहा
    और वो
    भंवरा बन फूलों पर
    मंडराते रहे!

    कोई रफीक रहा होगा ......!!

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  7. किस पत्थर से पाला पड़ गया आपका कि तड़प कलम तक आ गयी
    और पूरी मानवता ही कटघरे में खड़ी हो गयी

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  8. हा...हा..हा...हा...
    वही पुराने जख्म और कहानी, इस विषय पर रचनाएँ मानव के साथ ही जायेंगी :-) !
    अच्छी अभिव्यक्ति के लिए शुभकामनाये !

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  9. उनके आंसुओं को हमने
    ज़मी ना छूने दी कभी
    और उन्होंने
    हमारे ज़ख्म की
    मरहम तक ना की....

    सारी क्षणिकाएं बहुत खूबसूरत है...

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  10. oof ye ektarfe rishte........dard ke shrotr hee sabit hote hai...........

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