बुधवार, 2 जून 2010

कोई बचा लो मुझको मर रहा हूँ मैं

दीपक 'मशाल' जी के सुझाव पर अपनी इस रचना में कुछ पंक्तियाँ और जोड़ कर प्रस्तुत कर रहा हूँ.....

कोई बचा लो मुझको
मर रहा हूँ मैं
एक बार में मरता तो अलग बात थी 
किस्तों में मर रहा हूँ मैं,

पहले ज़मीर मरा
फिर इंसानियत
अब तिल तिल कर 
मर रही है मेरी संवेदनाएं,

कहते हैं की 
जब संवेदनाएं मरती हैं 
तो हैवानियत का 
जन्म होता है,

और हैवान अक्सर 
ज़मीर और इंसानियत जैसी 
वाहियात चीजो में 
यकिन नहीं करते
और वो संवेदनाओं से परे होते हैं,

यही तो फर्क होता है
इंसान और हैवान में,

इसीलिए तो कहता हूँ  कि
कोई बचा लो मुझको 
मर रहा हूँ मैं
इंसान से हैवान बन रहा हूँ मैं!

अगर तुम 
मुझे बचा नहीं सकते
तो फिर मुझे दोष भी मत देना
क्योंकि मैं खुद को
मरते हुए 
और इंसान से हैवान बनते हुए 
देख रहा हूँ, 

लेकिन मैं मरना नहीं चाहता,

इसी लिए तो कहता हूँ कि 
कोई बचा लो मुझको 
मर रहा हूँ मैं
इंसान से हैवान 
बन रहा हूँ मैं!

25 टिप्‍पणियां:

  1. lijiye sir sone pe suhaga ho gaya...achcha sampaadan...badhiya rachna

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  2. निलेश भाई ! परिवर्तन ना भी करते तो भी रचना पूर्ण ही थी ,,,अब भी अच्छी है ...मुख्य बात अपनी अभिव्यक्ति की पहुँच है ,,,,वो उस रचना में भी ,,प्रभावी थी ,,,,यहाँ भी ठीक है ,,,,बहुत खूब ....परिवर्तन बेहतर ,,,,, बधाई

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  3. नीलेश सर.. अब बात पहले से बेहतर तरीके से स्पष्ट भी हो रही है और कविता पहले से बहुत खूबसूरत भी लग रही है, संवेदना और भाव निखर कर सामने आ रहे हैं.

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  4. इस अनुज की बात को तवज्जो देने के लिए आभारी हूँ..

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  5. दीपक जी, हर एक से हमें कुछ ना कुछ सीखने के लिए मिलता है, बशर्ते कि हम सीखना चाहें!

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  6. एक बार में मरता तो अलग बात थी
    किस्तों में मर रहा हूँ मैं,

    .........बहुत खूब, लाजबाब !

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  7. आईये जाने .... प्रतिभाएं ही ईश्वर हैं !

    आचार्य जी

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  8. पहले ज़मीर मरा
    फिर इंसानियत
    अब तिल तिल कर
    मर रही है मेरी संवेदनाएं,
    इन सब का मरना वाकई खुद के मरने से भी ज्यादा त्रासद है
    बहुत सुन्दर

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  9. अगर तुम
    मुझे बचा नहीं सकते
    तो फिर मुझे दोष भी मत देना
    क्योंकि मैं खुद को
    मरते हुए
    और इंसान से हैवान बनते हुए
    देख रहा हूँ,
    amazing

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  10. bahut sundar ise mene pahle bhi pada aap e blog par


    dhnyawad phir padane ke liye

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  11. ऐसी बाते किया ना करो!
    यूँ ही जाने की जिद ना करो!

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  12. निलेश जी आपके इस रचना नहीं बल्कि आपके सार्थक सोच के लिए धन्यवाद ,कास लोग किसी के सुझाव और विचार पर आपके जैसा ही रूख अपनाते ,उम्दा सोचने की शक्ति |

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  13. निलेश जी ,

    बड़ा करार व्यंग किया है , अपने ढाल कर औरों पर निशाना साधा है.
    ये आपने अपनी व्यथा व्यक्त नहीं की है बल्कि अगर हम नजर दौड़ा कर देखते हैं तो इस आज की हवा में इंसान से हैवान बनना अधिक आसन हो गया है. अब इंसान कितने मिलते हैं? अपने चारों और देखो एक न एक हैवान जरूर मौजूद होगा. कौन किससे कहेगा? और कौन किसको बचाएगा. अगर हम अपने को ही बचाने का प्रयास करे तो बहुत से मानव बच सकते हैं.

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  14. मुझे ये परिवर्तित रचना ज्यादा बेहतर लग रही है ,इस बेहतरी का श्रेय आपने दीपक जी को दिया
    मैं आप दोनों को साधुवाद देना चाहूंगी
    सत्य कहा आपने ,सीखने का जज्बा होना चाहिए
    स्वीकारने का जज्बा होना चाहिए
    यही ज्ञानी होने का द्योतक है
    विद्या ददाति विनयं

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  15. लेकिन मैं मरना नहीं चाहता,

    इसी लिए तो कहता हूँ कि
    कोई बचा लो मुझको
    मर रहा हूँ मैं
    इंसान से हैवान
    बन रहा हूँ मैं!
    ati sundar ,insaayat kayam rahe iske liye burai ka marna jaroori hai ,baaki poori rachna kabile tarif hai .

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  16. Samvedansheel!
    Par ghabrana nahin, Nilesh Babu.... Hum aa rahe hain! Ha ha ha.....
    Aap awaawa baadal hain! Janna chahenge?
    Kyun hota Baadal Banjaara.....?

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