बुधवार, 2 जून 2010

कोई बचा लो मुझको मर रहा हूँ मैं



कोई बचा लो मुझको
मर रहा हूँ मैं
एक बार में मरता तो अलग बात थी 
किस्तों में मर रहा हूँ मैं,


पहले ज़मीर मरा
फिर इंसानियत
अब तिल तिल कर 
मर रही है मेरी संवेदनाएं,


कोई दे दे दवा 
या दारू ही सही
नशे में जान निकले 
तो अच्छा,


अगर बदकिस्मती से 
मैं बच गया 
तो क्या तुम मुझे 
इंसान कहोगे?



17 टिप्‍पणियां:

  1. नीलेश भाई, अच्छेई रचना बन पड़ी है लेकिन लगता है कुछ और पंक्तियाँ जुड़ जातीं तो और बेहतर होती.. नहीं?

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  2. कम शब्दों में सुन्दर रचना ,,,अंतिम पंक्ति बहुत कुछ कहती हुई ,,,,,,निलेश भाई धन्यवाद और बधाई

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  3. बहुत बढिया रचना है।बधाई स्वीकारें।

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  4. तिल तिल कर,मर रही है मेरी संवेदनाएं...बहुत बढिया

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  5. तिल तिल ही दुनिया गर्त में जा रही है..हम सभी मर रहे हैं इसी तरह!! इन्सान कहलाने तो वैसे अभी ही कहाँ बचे हैं.


    उम्दा रचना!

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  6. सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।

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  7. एक सच कहती रचना...आज हर इंसान यूँ ही मर रहा है...

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  8. जीवन कि सच्चाई को बहुत ही खूबसूरती से आपने इस रचना के माध्यम से पिरोया है |
    रत्नेश त्रिपाठी

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  9. पहले ज़मीर मरा
    फिर इंसानियत
    अब तिल तिल कर
    मर रही है मेरी संवेदनाएं,

    बहुत बढ़िया निलेश जी ,
    सही सोच और आज इंसानियत की दर्दनाक अवस्था का सटीक चित्रण ....

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  10. पहले ज़मीर मरा
    फिर इंसानियत
    अब तिल तिल कर
    मर रही है संवेदनाएं,...... bahut khoob

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  11. बदकिस्मती से
    अगर मैं मरने से बच गया
    तो क्या तुम मुझे इंसान कहोगे? ......dardnaak,maarmik.

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  12. पहले ज़मीर मरा
    फिर इंसानियत
    अब तिल तिल कर
    मर रही है मेरी संवेदनाएं,

    बहुत बढ़िया !

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  13. नीलेश बाबू, जब आदमी का जमीर, इंसानियत अऊर सम्वेदना मर गया, त ई जीना भी कोई जीना है लल्लू... ऐसन आदमी को ना दवा से ठीक किया जा सकता, न दारू से भुलाया जा सकता है... हम त दावा के साथ कहते हैं कि ऊ आदमी मरने से बच नहीं सकता, ऊ त जिंदा लाश बनकर सड़क पर बेख़ौफ घूमेगा… गलती से लाश का तौहीन हो गया नीलेश बाबू, काहे कि लाश त कुछ समय के बाद बदबू देना शुरू करता है, अईसा आदमी पल भर में बदबू देने लगता है...
    सलाम है आपका सम्वेदना को!!

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