मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009

यूँ ही एक दिन !

यूँ ही एक दिन 
चल दूंगा 
अलविदा कहकर तुम्हें ,
पर तुम निराश ना होना 
मेरे होने ना होने से 
क्या फर्क पड़ता है ,
सब कुछ यूँ ही चलता रहेगा 
यूँ ही मेरी तस्वीर 
दीवार पर टंगी होगी
फर्क सिर्फ इतना होगा 
कि इस पर 
नकली फूलों कि माला चढी होगी ,
यूँ ही घर कि घंटी बजेगी
कोई आएगा सहानुभूति दिखाएगा
यूँ ही बनिए की दुकान से 
बाकी में राशन आएगा 
और खाना पकेगा ,
तुम निराश ना होना 
सब कुछ यूँ ही चलता रहेगा
सिर्फ मैं ही तो नहीं रहूँगा ,
मेरे होने ना होने से
क्या फर्क पड़ता है!

3 टिप्‍पणियां:

  1. मार्मिक है रचना के भाव......फर्क तो पडेगा!

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  2. यूँ ही एक दिन
    चल दूंगा
    अलविदा कहकर तुम्हें ,
    पर तुम निराश ना होना
    मेरे होने ना होने से
    क्या फर्क पड़ता है ....

    निलेश जी ऐसी क्या बात हो गयी जो ये अलविदा की बात लिख दी .....?

    पर आपने भावों का उदगार बहुत अच्छे से किया ....रचना स्पंदनशील है ....!!

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  3. यह एक तरफ़ा सोच है ... फर्क तो पड़ता है ..सुन्दर अभिव्यक्ति

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