गुरुवार, 31 मई 2012

आवारा बादल - 2




आवारा बादल हूँ मैं 
कभी यहाँ तो कभी वहाँ 
बरसता रहा, 

लेकिन अब 
मरुभूमि पर बरसने की 
चाहत है
बरसूँ कुछ इस तरह 
कि खिल उठे फूल 
रेगिस्तान में 
और जलती हुई रेत
शीतल हो जाये, 

आवारा बादल हूँ मैं    
मेरी फितरत है 
भटकने की ,

लेकिन अब 
हवाओं से लड़ना है मुझे
जो ले जाती है अक्सर 
मुझे उड़ा कर 
कभी यहाँ तो कभी वहाँ,

आवारा बादल हूँ मैं
बरसना है मुझे 
बंजर जमीन पर
जिसे इंतज़ार है मेरा। 

11 टिप्‍पणियां:

  1. बादल की नियति हैं बरसना और इंसानों की नियति हैं ...बादलों के बरसने का इंतज़ार करना ...


    शब्द शब्द का तालमेल ..बहुत खूबसूरती से किया गया हैं ..

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  2. Bahut khoob ... Man mein vishvas ho to ye asan hoga karna ... Badal ki pravriti to barasne ki hi hai ..

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  3. बहुत बहुत सुन्दर प्रस्तुति नीलेश जी बहुत उम्दा भाव

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  4. बहुत खूब लिखा है आपने ..... अगर सही में हम किसी के काम आ सके तो इससे बढ़िया क्या हो सकता है !!
    सार्थक एवं उद्देश्य भरी इस सुंदर सी रचना के लिए बधाई व आभार !!

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  5. बहुत ही अच्‍छी कविता लिखी है
    आपने काबिलेतारीफ बेहतरीन !!

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  6. बहुत सुंदर सोच और चाह...ऐसा ही हो..गुरूजी कहते हैं न सेवा वहाँ हो जहाँ उसकी जरूरत है...

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