रविवार, 14 नवंबर 2010

मेरा जीवन

गिरता हूँ उठता हूँ
फिर चल देता हूँ
बचपन से लेकर अब तक
बार बार यही सिलसिला,
बचपन में थामने के लिए
हाथ हुआ करते थे
अब गिरने पर
खुद ही सम्हलना पड़ता है,
बचपन में गिरता था
तो रो लेता था
अब तो रोना भी
हंसी का पात्र बना देता है,
मिटटी में मिल जाने का दिन
करीब और करीब आ रहा है
मैं अब तक ठीक से
ये भी ना समझ पाया
कि मैं कौन हूँ
कहाँ से आया हूँ
और क्यों आया हूँ,
उलझा रहा सदा
विचित्र से जालों में
ढूंढ़ता रहा 
प्रेम, त्याग, सेवा, रिश्ते
जैसे शब्दों के अर्थ
कम शब्दों में कहूँ तो
अब तक का जीवन 
रहा व्यर्थ!

10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया भावपूर्ण रचना ....

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  2. जीवन के यथार्थ का वर्णन ... बहुत सुन्दर !
    बाल दिवस की शुभकामनायें !

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  3. मैं अब तक ठीक से
    ये भी ना समझ पाया
    कि मैं कौन हूँ
    yah talash rah jati hai

    .......
    pathik rachna bhejiye vatvriksh ke liye parichay aur tasweer ke saath rasprabha@gmail.com per

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  4. हमें तो कभी भी मिला जवाब ना,
    ताउम्र जिंदगी से है तलब किया ....

    क्या करे साहब, कमबख्त सोच रह रह कर, वहीँ जाती है ;)

    लिखते रहिये ....

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  5. .

    निलेश जी,

    यही प्रश्न अक्सर मुझे भी परेशान किया करते थे, अब तो खुद को समझा लिया है -- " जब तक सांसें चल रही हैं , तब तक अपने लिए निर्धारित कर्तव्यों का निष्ठा से पालन करना है। "

    .

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  6. बहुत ही खुबसूरत रचना ........ शब्दों के अर्थ तो नहीं मिलते हैं पर इन्हीं से जीवन भी चलता है | एक सोच उत्पन्न करती हुई रचना ........बधाई

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  7. कम शब्दों में कहूँ तो
    अब तक का जीवन
    रहा व्यर्थ!

    ....आशाओं का दामन नहीं छोड़ना चाहिए...सुन्दर भाव..बधाई.

    _________________
    'शब्द-शिखर' पर पढ़िए भारत की प्रथम महिला बैरिस्टर के बारे में...

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  8. नीलेश भाई, दूसरी इनिंग के खेल में बहुत निराश होकर लौटे हो आप! बड़ा भाई कहते थे मुझको... तो एक बार मेरी बात मानकर ये सब उदासी निकाल फेंको...कौन उदास नहीं जीवन में, किसको दुःख नहीं, घर कितना भी साफ़ करो धुल आ जाती है...किशमिश कितनी भी साफ़ कि जाए कोई एक दाना रह जाता है जिससे तिनका चिपका होता है..
    निकाल फेंकिये उदासी को! इस उम्र में उदासी अच्छी नहीं लगती..

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