आज फिर से
हम दीपावली मनाएंगे
जिनके घरों में
चूल्हे भी नहीं जले
उन्हें शर्मशार करते हुए
घी के दीप जलाएँगे,
धमाकों की आवाज में
छुप जाएंगा रुदन उनका
रोशनी से जगमगाते शहर को,
आज फिर से
हम भूखे नंगों के बीच
नए कपडे पहन कर निकलेंगे
पटाखों के रूप में जलाएँगे,
कोई बिनब्याही बेटी का बाप
दहल जाएगा इनके धमाकों से
और कोई बच्चा
हसरत भरी निगाहों से
निहारेगा फुलझड़ियों को ,
आज फिर से
हम इन बुझे हुए चेहरों के बीच
दीप जलाएँगे
दीप जलाएँगे
और दीपावली मनाएंगे,
क्या ये दीप
रोशन कर पाएँगे?
क्या ये दीप
उन अन्धकार में डूबे घरों को
ज़रा सी रोशनी दिखाएँगे?
क्या ये दीप
हमारे अंतर के अन्धकार को
मिटा पाएंगे ?
क्या हम सचमुच
कभी रोशनी में नहाएँगे ?