गुरुवार, 23 अक्टूबर 2014

दीपावली



आज फिर से 
हम दीपावली मनाएंगे 
जिनके घरों में 
चूल्हे भी नहीं जले
उन्हें शर्मशार करते हुए 
घी के दीप जलाएँगे,

धमाकों की आवाज में
छुप जाएंगा रुदन उनका   
और वो भूखे पेट निहारेंगे 
रोशनी से जगमगाते शहर को,

आज फिर से 
हम भूखे नंगों के बीच 
नए कपडे पहन कर निकलेंगे
और नोटों के बण्डल 
पटाखों के रूप में जलाएँगे,

कोई बिनब्याही बेटी का बाप
दहल जाएगा इनके धमाकों से
और कोई बच्चा 
हसरत भरी निगाहों से 
निहारेगा फुलझड़ियों को ,

आज फिर से 
हम इन बुझे हुए चेहरों के बीच
दीप जलाएँगे
और दीपावली मनाएंगे,


क्या ये दीप 
उन बुझे हुए चेहरों को 
रोशन कर पाएँगे?

क्या ये दीप 
उन अन्धकार में डूबे घरों को
ज़रा सी रोशनी दिखाएँगे? 

क्या ये दीप 
हमारे अंतर के अन्धकार को 
मिटा पाएंगे ? 

क्या हम सचमुच 


कभी रोशनी में नहाएँगे ?